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विधिवाद ]
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विरोधात् – 'कल्पनावशाद्विधेः प्रमेयप्रमाणरूपत्वेन्यापोहवादानुषङ्गस्याविशेषात् । प्रमाणप्रमेयरूपो विधिरिति कल्पनाप्यनेन निरस्ता । तदनुभयरूपो विधिरिति कल्पनायां तु खरशृङ्गादिवदवस्तुतापत्ति:- -प्रमाणप्रमेयस्वभावरहितस्य विधेः स्वभावान्तरेण व्यवस्थाना- 2 योगात् । प्रमात्रादेरपि प्रमेयत्वोपपत्तेः ' । अन्यथा तत्र' प्रमाणवृत्तेरभावात् सर्वथा वस्तुत्वहानि: ।
प्रथम परिच्छेद
[ विधेः शब्दादिव्यापाररूपाभ्युपगमे दोषानाह
शब्दव्यापाररूपो विधिरिति चेत् सा शब्दभावनैव । पुरुषव्यापारः स इति चेत् सार्थ -
कहना पड़ेगा क्योंकि वह विधि प्रमाण प्रमेय रूप उभय स्वभाव वाली नहीं हो सकती है, विरोध आ जाता है । अर्थात् प्रमाण को माने बिना विधि - ब्रह्म को प्रमेय रूप कैसे कहोगे ? और यदि आप ब्रह्म को प्रमाण प्रमेय रूप से उभय रूप कह दोगे तब तो एक ही निरंश परब्रह्म अद्वैत रूप है पुनः वही दो रूप कैसे बन सकेगा ? कल्पना के निमित्त से विधि को प्रमेय और प्रमाण रूप से उभय रूप कहने पर तो अन्यापोहवादी होने का प्रसंग समान ही है । अर्थात् बौद्धों ने शब्दों से वाच्य अर्थ को कल्पना से ही अन्यापोह रूप माना है उसी के समान आपकी मान्यता भी कल्पना से होने से आपके यहां भी अन्यापोहवाद आ जावेगा ।
(३) तृतीय पक्ष में "विधि प्रमाण और प्रमेय से उभय रूप है" यह कल्पना भी इस उपर्युक्त विवेचन से ही निरस्त कर दी गई है ।
(४) चतुर्थ विकल्प में विधि को आप इन प्रमाण प्रमेय से रहित अनुभय रूप कल्पित करोगे तब तो खरविषाणादि के समान वह विधि अवस्तु ही हो जावेगी, क्योंकि प्रमाण और प्रमेय से रहित विधि का भिन्न किसी भी स्वभाव से रहना ही असंभव है। यदि आप कहें कि विधि प्रमाण, प्रमेय से भिन्न, प्रमाताज्ञाता एवं प्रमिति जानने रूप किया रूप से व्यवस्थित होगी सो भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रमाता - आत्मा आदि भी प्रमेय रूप ही हैं । अन्यथा - उन प्रमाता - आत्मा अथवा प्रमिति रूप ज्ञप्ति में प्रमाणवृत्ति का अभाव होने से सर्वथा वस्तुत्व की हानि हो जावेगी अर्थात् पुनः वे प्रमाता प्रमिति वस्तुभूत ही नहीं रह सकेंगे, क्योंकि आपके यहां तो एक परम ब्रह्म ही जाता, ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञप्ति रूप से अभेद रूप ही है पुनः आप उसे ज्ञान, ज्ञेय रूप से नहीं मानकर यदि ज्ञाता और ज्ञप्ति रूप से मानेगे तो प्रमाण- ज्ञान रूप न मानने से वह विधि - ब्रह्म वास्तविक सिद्ध नहीं हो सकेगा ।
1 तस्यैवोभयस्वभावत्व विरोधादित्यादिना द्वितीयविकल्पनिराकरणेन । 2 स्वभावान्तरेण व्यवस्थानाभावः कुतो याबता प्रमात्रादिरूपेण विधेर्व्यवस्थितिर्भविष्यतीत्याङ्क्याह । 3 प्रमिति । 4 विधिवाद्याह । - विधिः प्रमाणं प्रमेयं चमा भवतु किन्तु प्रमातृप्रमितिरूपोस्तीति चेदाहान्यापोहवादी । - प्रमात्रादेरपि प्रमाणविषयत्वं घटते अन्यथा प्रमेयत्वं न घटते चेत्तदा प्रमाणव्यापारस्याभावात् प्रमात्रादिरूपेणाभ्युपगतस्य विधेर्वस्तुत्वं हीयते । 5 प्रमातरि प्रमितौ वा ।
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