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विधिवाद ]
प्रथम परिच्छेद [ भाट्टो नियोगवादं निराकृत्याधुना विधिवादं निराकरोति ] 'नन्वेवं नियोगनिराकरणेऽपि विधेर्वाक्यार्थत्वघटनान्न भावना वाक्यार्थः सिद्धो भट्टस्येति न 'चेतसि विधेयम् —विधेरपि विचार्यमाणस्य बाध्यमानत्वात् । सोऽपि हि प्रमाणरूपो वा स्यात् प्रमेयरूपो वा तदुभयरूपो वा अनुभयरूपो वा पुरुषव्यापाररूपो वा शब्दव्यापाररूपो वा द्वयव्यापाररूपो वाऽद्वयव्यापाररूपो वेत्यष्टौ विकल्पान्नातिकामति । तथाहि ।
[ विधेः प्रमाणरूपाभ्युपगमे दोषानाह ] प्रमाणं विधिरिति कल्पनायां प्रमेयं किमपरं स्यात् ? 'तत्स्वरूपमेवेति चेन्न-सर्वथा निरंशस्य सन्मात्रदेहस्य विधेः प्रमाणप्रमेयरूपद्वयविरोधात् । कल्पितत्वात्तद्रूपद्वयस्य
[ प्रभाकर नियोगवाद को मानता है जैनाचार्यों ने भावनावादी भाट्ट के मुख से उस नियोगवादी का खंडन कराया है। अब जैनाचार्य पूनः विधिवादी वेदान्ती का भी खंडन भाद्र के द्वारा ही करा रहे हैं। ]
विधिवादी [वेदांतवादी]- इस प्रकार से नियोग का निराकरण हो जाने पर भी वेद का अर्थ विधि ही घटित होता है किन्तु आप भाट्टों के द्वारा मान्य वेदवाक्य का भावना अर्थ सिद्ध नहीं हो सकता है ।
भाट्ट-ऐसा भी तुम्हें मन में नहीं समझना चाहिये क्योंकि विधिवाद को भी विचार की कोटि में रखने से वह बाधित हो जाता है । उस विधि अर्थ में हम प्रश्न करेंगे कि वह विधि प्रमाण रूप है या प्रमेयरूप, उभयरूप है या अनुभयरूप, पुरुष व्यापार रूप है या शब्द व्यापार रूप, द्वय-इन दोनों के व्यापार रूप है या अद्वय-इन दोनों से रहित व्यापार रूप है ? इन आठ विकल्पों का उलंघन वह विधि--ब्रह्मवाद भी नहीं कर सकता है।
[ विधि को प्रमाण रूप मानने पर उसका खंडन ] (१) तथाहि-विधि को प्रमाण मानने पर आप ब्रह्माद्वैतवादियों के यहाँ अन्य प्रमेय नाम की और क्या वस्तु होगी ? यदि आप कहो विधि (ब्रह्म) का स्वरूप ही प्रमेय है तब तो सर्वथा निरंश, सन्मात्रदेहवाले विधि-परब्रह्म के प्रमाण और प्रमेय ऐसे दो रूप नहीं हो सकते हैं क्योंकि विरोध आता है।
वेदांती-कल्पित होने से वे प्रमाण और प्रमेय दोनों रूप वहाँ पर विधि में अविरुद्ध हैं।
1 अथ नियोगवादिनं निराकृत्त्य भट्टो विधिवादिनं दूषयति। 2 वाक्यार्थनिवेदनादिति खपाठः। 3 त्वया विधिवादिनेति शेषः । 4 निधेयं इति वा पाठः । (ब्या० प्र०) 5 यदि शब्द: सद्भावस्वरूपं नाभिदधाति निषेधस्वरूपमभिदधाति चेत्तदभावे क्वचिद्वस्तुनि प्रवृत्तिन स्यात् । 6 ब्रह्माद्वैतवादिनाम् । 7 विधिस्वरूपमेव । 8 ननु स एव चिदात्मोभयस्वभावतया स्वात्मानं प्रकाशयन्नित्युक्तं तावत्, साम्प्रतं निरंशतवोच्यतेऽतः पूर्वापरविरोधः इति चेन्न, प्रमेयस्वभावः काल्पनिकः प्रतिपाद्यार्थमुच्यते न तु वास्तवस्तद्विवर्तत्वात्तस्य ।
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