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अष्टसहस्री
'नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया ।
अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते ॥" परन्तु यह कथन भी विरुद्ध है। बिघ्नों के परिहार रूप फल को प्रतिपादन करते समय "स्वर्गकामः" यह वचन कैसे सिद्ध होगा? जब विघ्न का परिहार करने के लिये यज्ञ किया जाता है तब "स्वर्गकामः" इस शब्द से क्या प्रयोजन है ? अतएव "जुहुयात् जुहोतु होतव्यं" इन लिङ्, लोट्, तव्य प्रत्यय को अन्त में रखकर निर्देश कर देने से नियोग मात्र सिद्ध हो गया उसी से प्रवृत्ति सम्भव है इसलिये स्वर्ग की इच्छा के बिना भी याग कर्म में प्रवृत्ति हो गई।
यदि फल सहित नियोग है ऐसा कहो तो फल की इच्छा होना ही प्रवर्तक है न कि नियोग, क्योंकि नियोग के बिना भी फलार्थीजनों की प्रवृत्ति देखी जाती है।
नियोगवादी-ये सभी दोष तो तब आवेंगे जब हम वेद को पौरुषेय-पुरुषकृत माने । हमारे यहाँ अपौरुषेय वेदवाक्य से नियोग अर्थ मानने में कोई दोष नहीं आते हैं।
भाट्ट-तब तो आपको 'सवं वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन, आरामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन' इत्यादि विधि वचन को भी प्रमाण मानना होगा। अतः एकादश प्रकार के सभी पक्षों में प्रत्येक का विचार करने पर वह नियोग सिद्ध नहीं होता है।
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