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५२ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३तत्राविरोध इति चेत्, कथमिदानीमन्यापोहः- शब्दार्थः प्रतिषिध्यते---संविन्मात्रस्याप्रमाणत्व व्यावृत्त्या प्रमाणत्वमप्रमेयत्वव्यावृत्त्या च प्रमेयत्वमिति । परैरभिधातुं शक्यत्वात् । वस्तुस्वभावाभिधायकत्वाभावे शब्दस्यान्यापोहा भिधायकत्वेऽपि क्वचित्' प्रवर्त्तकत्वायोगान्नान्यापोहः शब्दार्थ इति चेत्, तहि वस्तुस्वरूपाभिधायिनोपि शब्दस्यान्यापोहान10
भाट्ट-तब तो बौद्धाभिमत शब्द का अर्थ अन्यापोह है उसका आप निषेध कैसे करते हैं ? क्योंकि "अप्रमाण की व्यावृत्ति से प्रमाण और अप्रमेय की व्यावृत्ति से प्रमेय है" इस प्रकार से संविन्मात्र को ही विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्ध ने स्वीकार किया है।
भावार्थ- शंका यह हुई थी कि चिदात्मा प्रमाण एवं प्रमेयरूप उभयस्वभाव से अपने को प्रकाशित करता हुआ युक्त है ऐसा विधिवादी का कहना था पुनः ऐसा कह दिया वह परमब्रह्म निरंश ही है इसलिये परस्पर विरुद्ध हो गया ऐसा कहने पर उसने कहा कि प्रमेय स्वभाव तो काल्पनिक है और वही प्रतिपाद्य अर्थ है वह वास्तविक नहीं है वह तो उस ब्रह्म को ही पर्याय है । तब उस भाट्ट ने कहा कि प्रमाण और प्रमेय दोनों रूपों को कल्पित कहने पर तो बौद्ध भी शब्द का अर्थ अन्यापोह करता है उसका निषेध आप क्यों करते हैं क्योंकि बौद्धों के यहाँ भी संविन्मात्र-विज्ञानमात्र तत्त्व अप्रमाण की व्यावृत्ति से प्रमाण रूप है और प्रमेय भी अप्रमेय की व्यावृत्ति से प्रमेय रूप है ऐसा संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध भी कह सकते हैं क्या बाधा है ? मतलब-आप विधिवादी प्रमाण प्रमेय दोनों को कल्पना रूप से विधि में विरुद्ध नहीं मानते हो तब तो "अगोावत्तिगौ:, अघटव्यावृत्तिर्धट:"
अभावात्मक-अन्यापोह रूप शब्द का अर्थ क्यों नहीं मान लेते हो. उसका निषेध क्यों करते हो क्योंकि कल्पित रूप तो प्रमाण और अन्यापोह दोनों में समान है ? जैसे आप वेदांतवादी प्रमाण को कल्पित मानते हो वैसे ही बौद्ध अन्यापोह को कल्पित मानते हैं इसलिये दोनों में कोई अन्तर नहीं दीखता है।
विधिवादी-आप बौद्ध की मान्यतानुसार शब्द अन्यापोह का कथन करने वाले भले ही हों किन्तु वस्तु के स्वभाव का कथन करने वाले नहीं हैं। अतः उन शब्दों की क्वचित्-विधि में प्रवृत्ति नहीं होती है इसीलिये शब्द का अर्थ अन्यापोह नहीं है।
1 प्रमाणप्रमेयरूपदयस्य कल्पितत्वाभिधानकाले। 2 विधी कल्पितत्वात्प्रमाणप्रमेयरूपद्वयं घटते चेत्कल्पितं किमन्यापोहः ? स एव शब्दार्थस्तत्रापि वाक्यार्थत्वघटनात् । 3 अत्राह सौगतमतमवलम्ब्य भावनावादी विधिवादिन प्रति ।
-हे विधिवादिन् कल्पनारूपत्वात्प्रमाणप्रमेयरूपद्वयं विधौ न विरुध्यते इति त्वया प्रतिपाद्यते चेत् तहि कल्पनारूपत्वादगोावृत्तिगौं: अघटव्यावृत्तिर्घट इत्यादिलक्षणः सौगताभ्युपगतशब्दार्थः अन्यापोहः अभावात्मकस्त्वया विधिवादिना कथं निराक्रियते ? प्रमाणान्यापोहयोः कल्पितत्वाविशेषात । 4 शन्य। 5 सौगतः संविन्मात्रपक्षग्राह 6 विधिवादी। 7 तदा शब्दो वस्तुस्वरूपमभिदधाति अन्यापोहस्वरूपं नाभिदधाति चेदन्यपरिहारेण प्रवत्तिर्न स्यात स्वपररूपयोः सरो भवेदित्यर्थः। 8 विधौ। 9 सर्वत्र निवर्तकत्वात् । (ब्या० प्र०) 10 विधेयत्वात्प्राप्यत्वात् ।
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