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________________ प्रथम परिच्छेद नियोगवाद ] [ ३६ [ नियोगस्य सदसदादिरूपस्वीकारे दोषारोपणम् ] किञ्च सन्नेव वा नियोगः स्यादसन्नेव वोभयरूपो वानुभयरूपो वा ? प्रथमपक्षे विधिवाद एव । द्वितीयपक्षे निरालम्बनवादः । तृतीयपक्षे तूभयदोषानुषङ्गः । चतुर्थपक्षे व्याघात:-सत्त्वासत्त्वयोः परव्यवच्छेद रूपयोरेकतरस्य निषेधेऽन्यतरस्य विधानप्रसक्तेः-- सकृदेकत्र 'प्रतिषेधायोगात् । सर्वथा सदसत्त्वयोः प्रतिषेधेपि कथञ्चित्सद सत्त्वा विरोधाददोष इति चेत् स्याद्वादाश्रयणप्रसङ्गः प्रभाकरस्य । सकता है। दूसरी बात यह भी है कि उस वाक्य उच्चारण के समय में उन स्वर्गादि फलों का सन्निधान नहीं है। यदि उस अविद्यमान फल को भी वाक्य का अर्थ मानोगे तो निरालंब शब्द पक्ष को लेने से आप बौद्ध बन जावेंगे क्योंकि बौद्धों के यहाँ शब्द का अर्घ वस्तुभूत कुछ भी नहीं है । अविद्यमानअवास्तविक अर्थों को ही शब्द कहा करते हैं किंतु आपने तो आगम को प्रमाण माना है अतः यह मान्यता ठीक नहीं है। तथा यदि आप तृतीय नि:स्वभाव पक्ष को अनुभय के नञ् समास का प्रसज्य प्रतिषेध करके मानें तब तो सभी स्वभावों से रहित नियोग खर-विषाण के समान असत् ही हो जावेगा एवं बौद्धों ने शब्दों का वाच्य असत्-अन्यापोह ही माना है। उन्हीं के मत में आपका प्रवेश हो जावेगा अतः आठों विकल्पों की कसौटी पर कसने से आपका नियोग सिद्ध नहीं होता है। [ नियोग को सत् असत् आदि मानने में दोषारोपण ] दूसरी बात यह है कि यह आपका नियोग सत् रूप ही है या असत् रूप ही है या उपयरूप है अथवा अनुभय रूप है. ? प्रथम पक्ष में तो विधिवाद-ही आता है अर्थात् वेदांती संपूर्ण जगत् को सत् रूप ही मानते हैं। द्वितीय पक्ष के लेने पर निरालंबनवाद-शून्यवाद ही आता है अर्थात् शून्यवादी संपूर्ण जगत को असत रूप ही मानते हैं। ततीय पक्ष में उभयपक्ष में दिये गये दोषों का प्रसंग आता है । एवं चतुर्थ पक्ष के मानने पर व्याघांत-विरोध नाम का दोष आता है क्योंकि सत् और असत् एक दूसरे के व्यवच्छेद विरोध रूप हैं अतः इन दोनों में से किसी एक का निषेध करने पर दूसरे का विधान हो जाता है। एक साथ एक ही वस्तु में सत्त्व एवं असत्त्व का प्रतिषेध नहीं हो सकता है अर्थात् 'सत् नहीं है" ऐसा कहने पर असत् स्वयं ही आ जाता है एवं "असत् नहीं है' ऐसा कहने पर सत् स्वयमेव आ जाता है । तथा सर्वथा सत्त्व एवं असत्त्व का प्रतिषेध करने पर भी कथंचित् सत्त्व असत्त्व का विरोध न होने से कोई दोष नहीं है यदि आप ऐसा कहें तो आप प्रभाकर स्याद्वाद मत का आश्रय ले लेंगे। 1 अन्धसर्प बिलप्रवेशन्यायेन । 2 तदुक्तम् । प्रत्येक यो भवेहोषो द्वयोर्भावे कथं न स इति वचनात् । 3 विरोधः । 4 कथम् ? । 5 परस्परव्यवच्छेदययोः । इतिपाठान्तरं (ब्या० प्र०)। 6 यथा सदित्युक्तेऽसत्स्वयमेवायाति, असदित्युक्ते सत्स्वयमेवायाति । 7 सत्त्वासत्त्वयोः। 8 सदसत्त्व विधानाददोष इति खपाठः । 9 सर्वेषां पदार्थानां क्रमवत्तित्वात् शब्दानां च। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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