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________________ ३८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३निष्फलस्य नियोगस्यायोगात् । फलांतरस्य च फलस्वभावनियोगवादिनां नियोगत्वापत्तौ तदन्यफलपरिकल्पनेऽनवस्थाप्रसङ्गः । फलस्य वाक्यकाले स्वयमसन्निहितत्वाच्च 'तत्स्वभावो नियोगोप्यसन्निहित एवेति कथं वाक्यार्थः ? 'तस्य वाक्यार्थत्वे "निरालम्बनशब्दवादाश्रयणात् कुतः प्रभाकरमतसिद्धिः ? निःस्वभावो नियोग इत्ययमपि पक्षोऽनेनैवप्रतिक्षिप्तः । का प्रसंग आ जावेगा। तथा स्वर्गादि फल "अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः' इत्यादि वाक्य के काल में स्वयं असन्निहित अविद्यमान हैं पूनः वह फल स्वभाव रूप नियोग भी असन्निहित-अविद्यमान ही रहेगा। इस प्रकार से वह वेदवाक्य का अर्थ कैसे सिद्ध होगा? यदि आप अविद्यमान फल स्वभाव वाले नियोग' को वेदवाक्य का अर्थ मान लेवो तो निरालंब शब्दवाद का आश्रय लेने से आप प्रभाकर के मत की सिद्धि कैसे होगी? अर्थात् शब्द को अन्यापोह मात्र का कहने वाला मानने से बौद्ध का अर्थ शून्यवाद सिद्ध होता है। बौद्ध के मत में शब्द अन्यापोह रूप हैं, अर्थ को कहने वाले नहीं हैं। यदि आप निःस्वभाव को नियोग कहें तो यह पक्ष भी इसी कथन से निराकृत हो जाता है क्योंकि निःस्वभाव अन्यापोह रूप ही है। भावार्थ-प्रभाकर ने नियोग का लक्षण करके भिन्न-भिन्न वक्ता के अभिप्राय से उन्हें ११ प्रकार से सिद्ध किया है । इस प्रकार भाट्ट ने उन ११ विकल्प रूप नियोगों को दूषित ठहराने के लिये प्रमाण प्रमेय आदि रूप आठ विकल्प उठाकर उस प्रभाकर को वेदांतवादी होने का दूषण दिखाया है। उसी में अंतिम "अनुभय व्यापार रूप" आठवें पक्ष में तीन विकल्प उठाये हैं। उसमें विषय और फल स्वभाव को पर्यदास पक्ष से एवं निःस्वभाव नियोग को प्रसज्य निषेध पक्ष से लिया है। उसमें विषय स्वभाव और फल स्वभाव नियोग में दूषण दिया है कि "अग्निष्टोम से यज्ञ करना चाहिये" इस वाक्य के उच्चारण काल में यज्ञादि कर्म नहीं हैं अतः यज्ञ रूप नियोग भी संभव नहीं है । जो कार्य भविष्य में होने वाला है उस कार्य के साथ तादात्म्य संबंध रखने वाला धर्म वर्तमान काल में नहीं है और यदि भविष्य में होने वाले यज्ञ की वर्तमान में संभावना मानो जावे तो पूनः वाक्य का अर्थ नियोग नहीं हो सकेगा क्योंकि वह नियोग तो कर्तव्य कार्यों को भविष्य में बनाने के लिये हुआ करता है । जो किया जाकर बन चूका है उसका पुनः बनाना नहीं हो सकता है, जसे कि अनादि काल के बने हा (अकृत्रिम) नित्य द्रव्य-आत्मा, आकाशादि नहीं बनाये जा सकते हैं । एवं उस नियोग को स्वर्गादि स्वभाव मानने पर वे स्वर्गादि फल तो स्वयं उस यज्ञ के अंतिम परिणाम हैं। फल का पन: फल होता नहीं है किन्तु नियोग तो फल से सहित है। यदि अन्य फलों की कल्पना करो तो अनवस्था तैयार खड़ी है । यदि फल को भविष्य में होने वाला माना जावे तो वर्तमान काल का नियोग नहीं हो 1 प्रसङ्गादिति खपुस्तकपाठः। 2 स्वर्गादेः। 3 अग्निष्टोमेन यजेतेति वाक्यकाले। 4 फलस्वभावः । 5 असन्निहितस्य फलरूपनियोगस्य। 6 शब्दस्यान्यापोहाभिधायित्वेनार्थशून्यवादः । सौगतमते शब्दस्त्वन्यापोहरूपो नत्वर्थाभिधायी। 7 नि:स्वभावस्यान्यापोहत्वानतिक्रमात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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