________________
४०
।
अष्टसहस्री
[ कारिका३
[ नियोगस्य प्रवर्तकाप्रवर्तकस्वीकारे दोषारोपणं ] किञ्च' नियोगः सकलोपि' प्रवर्तकस्वभावो वा स्यादप्रवर्तकस्वभावो वा ? प्रवर्तकस्वभावश्चेत् प्रभाकराणामिव ताथागतादीनामपि प्रवर्तकः स्यात्-तस्य सर्वथा प्रवर्तकत्वात् । तेषां विपर्यासादप्रवर्तक इति चेत् परेषामपि 'विपर्यासाद प्रवर्तकोस्तु । शक्यं हि वक्तुं, प्राभाकरा विपर्यस्तत्वाच्छब्द"नियोगात्प्रवर्तन्ते नेतरे13 तेषामविपर्यस्तत्वादिति । सौगतादयो विपर्यस्तास्तन्मतस्य प्रमाणबाधितत्वात् । न पुनः प्राभाकरा इत्यपि पक्षपातमात्रम्-तन्मतस्यापि प्रमाणबाधितत्वाविशेषात् । यथैव हि प्रतिक्षणविनश्वरसकलार्थकथनं
[नियोग को प्रवर्तक या अप्रवर्तक मानने में दोष ] दूसरी बात यह है कि ग्यारह प्रकार का भी नियोग प्रवर्तक स्वभाव है या अप्रवर्तक स्वभाव है ? यदि प्रवर्तक स्वभाव मानों तो आप प्रभाकर के समान ही वेदवाक्य का अर्थ बौद्धों के लिये भी प्रवर्तक हो जावेगा क्योंकि वह वेदवाक्य सर्वथा प्रवर्तक स्वभाव वाला है। यदि आप कहें कि वे सौगातादि विपरीत बुद्धि वाले हैं अतः वह नियोग उनके लिये अप्रवर्तक है तब तो आप प्रभाकरों को भी विपर्यास होने से वह अप्रवर्तक हो जावे । हम ऐसा कह सकते हैं कि प्रभाकर विपर्यस्त-विपरीत बुद्धि वाले होने से शब्द नियोग से प्रवृति करते हैं इतर बौद्धादि नहीं करते हैं क्योंकि वे विपर्यस्त बुद्धि वाले नहीं हैं । टिप्पणी में "अप्रवर्तक' की जगह “प्रवर्तक" ऐसा पाठ है उसका ऐसा अर्थ करना कि आप प्रभाकर को भी विपरीत बुद्धि होने से ही वह नियोग प्रवृत्ति कराता है। अर्थात् आपकी ही बुद्धि विपरीत है।
प्रभाकर-सौगतादि विपर्यस्त-विपरीत बुद्धि वाले हैं क्योंकि उनका मत प्रमाण से बाधित है, किंतु हम प्रभाकर मत प्रमाण से बाधित नहीं है ।
भाटयह आपका कथन पक्षपात मात्र को सूचित करता है क्योंकि आपका मत भी प्रमाण से बाधित ही है, अतः दोनों ही मत प्रमाण से बाधित हैं। जिस प्रकार से सभी पदार्थों को प्रतिक्षण विनश्वर कहना प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है उसी प्रकार से नियोक्ता-यज्ञकर्ता, नियोग-वेदवाक्य
और उसका विषय-यज्ञादि रूप से भेद की परिकल्पना भी प्रत्यक्षादि सभी प्रमाणों से बाधित ही है क्योंकि सभी प्रमाण विधि के विषय को व्यवस्थापित करते हैं अतः नियोग की सिद्धि बाधित ही है।
1 भाट्टः। 2 एकादशप्रकारोपि। 3 सर्वपुरुषापेक्षाप्रकारेण । 4 सौगतादीनाम् । 5 प्रवर्तकस्वभावे नियोगेऽप्रवर्त्तकतया मननं विपर्यासः। 6 युष्माकं प्राभाकराणां विपरीतत्वादप्रवर्तकोस्तु । 7 अप्रवर्तकस्वभावे नियोगप्रवर्तकतया मननं विपर्यासः। 8 प्रवर्तकोस्त्विति खपाठः। 9 विपर्यासात्प्रवर्तकोऽस्तु । इति पा० (ब्या० प्र०)। 10 अप्रवर्तकत्वात् (खपुस्तके)। 11 शब्दाधिकारात् । 12 ताथागतादयः। 13 बौद्धा अविपर्ययत्वाच्छब्दनियोगात् प्रवर्तन्ते । (ब्या० प्र०) 14 अत्राह नियोगवादी प्रभाकरः। 15 अत्राह भावनावादी भट्टः । -भो प्रभाकर इति ते वचनं स्वमतपक्षपातमात्रम् । कस्मात् ? प्रभाकरमतस्यापि प्रमाणबाधितत्वेन विशेषो नास्ति यतः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.