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नियोगवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ २७ प्रेरणव नियोगोत्र शुद्धा सर्वत्र गम्यते। नाप्रेरितो यतः कश्चिन्नियुक्तं स्वं प्रबुध्यते ॥४॥
[ प्रमाणवातिकालंकार पृ० २६ ] (३) प्रेरणासहितं कार्य नियोग इति केचिन्मन्यन्ते ।। ममेदं कार्यमित्येवं ज्ञातं पूर्व यदा भवेत् । स्वसिद्धौ प्रेरकं तत्स्यादन्यथा तन्न सिद्धयति ॥५॥
[प्रमाणवातिकालंकार पृ. २६ ] (४) कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इत्यपरे । प्रेर्यते पुरुषो नैव कार्येणेह विना क्वचित् । ततश्च प्रेरणा प्रोक्ता नियोगः कार्यसङ्गता ॥६॥
[ प्रमाणवातिकालंकार पृ० २६ ]
अर्थात् जैसे यजि, पचि आदि धातुओं के अर्थ शुद्ध याग, पाक हैं स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाला या तृप्ति की कामना करने वाला धात्वर्थ नहीं है क्योंकि वह प्रत्यय के अर्थ का प्रतिपादक नहीं है ॥३॥
(२) तथा अन्य किन्हीं नियोगवादियों का ऐसा कहना है कि वाक्यांतर्गत कर्मादि अवयवों की अपेक्षा से रहित 'शुद्ध प्रेरणा ही नियोग है ऐसा सिद्धांत है।"
श्लोकार्थ-शुद्ध प्रेरणा ही नियोग है और वह सर्वत्र जानी जाती है क्योंकि प्रेरित नहीं हुआ कोई भी पुरुष अपने को नियुक्त हुआ नहीं समझता है । अर्थात् जाति, व्यक्ति और लिंग तो जिस प्रकृति से प्रत्यय किये जाते हैं उस प्रकृति के अर्थ कहे जाते हैं और संख्या एवं कारक ये प्रत्यय के अर्थ हैं, इस मन्तव्य की अपेक्षा शुद्ध प्रेरणा को ही प्रत्यय का अर्थ मानना चाहिये । वह प्रेरणा जिस धात्वर्थ के साथ लग जावेगी उस क्रिया में नियुक्त जन प्रवृत्ति करता रहेगा ॥४॥
(३) कोई प्रेरणा सहित कार्य को नियोग कहते हैं ।
श्लोकार्थ- "यह मेरा कर्तव्य-कार्य है ऐसा जब पहले ज्ञान हो जाता है, तभी वह वाक्य अपने कार्य की सिद्धि में--पुरुष को याग कर्म में प्रेरक हो सकता है अन्यथा-यदि यह मेरा कार्य है ऐसा पहले नहीं जाना है तब वह अपने कार्य की सिद्धि में प्रेरक नहीं हो सकता है । अर्थात् अकेली प्रेरणा या शुद्ध कार्य नियोग नहीं है किन्तु प्रेरणा सहित कार्य नियोग है" ॥५॥
(४) कोई कार्यसहित प्रेरणा को नियोग कहते हैं । तथाहिश्लोकार्थ-कार्य के बिना कोई पुरुष यज्ञ क्रिया में प्रेरित नहीं किया जाता है इसलिये कार्य
1 नियोगरहिता। 2 वाक्यस्य । 3 पुरुषस्य यागकर्मणि। 4 ममेदं कार्यमित्येवं ज्ञानाभावे तत्स्वसिद्धौ प्रेरकं न सिद्धयति । 5 यागकर्मणि (ब्या० प्र०)।
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