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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
' प्रत्ययार्थी नियोगश्च यतः शुद्धः प्रतीयते । 'कार्यरूपश्च तेनात्र शुद्धं कार्यमसौ मतः ॥ १ ॥ विशेषणं तु यत्तस्य किञ्चिदन्यत् प्रतीयते । ' प्रत्ययार्थो न तद्युक्तं धात्वर्थ: स्वर्गकामवत् ॥२॥ प्रेरकत्वं तु यत्तस्य ' ' विशेषणमिहेष्यते । तस्याप्रत्ययवाच्यत्वाच्छुद्धे 10 कार्ये नियोगता ॥ ३॥ [ प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० २६ ]
]
इति वचनात् ।
(२) "परेषां शुद्धा 12 प्रेरणा नियोग इत्याशयः 14 |
अवसर पर पुरोहित, नाई आदि नियोगी पुरुष अपने कर्तव्य को पूरा करते हैं, तभी तो उनके नेग ( नियोग ) का परितोष दिया जाता है । वह नियोग अनेक प्रकार का है. मीमांसकों के प्रभाकर, भट्ट और मुरारि ये तीन भेद हैं, प्रभाकरों की भी अनेक शाखायें हैं ये प्रभाकर लोग "यजेत" इस विधि - लिङ् प्रत्यय, "यजताम्" इस लोट् प्रत्यय, एवं " यष्टव्यं" इस तव्य प्रत्यय का अर्थ नियोग रूप से करते हैं ।
[ एकादश प्रकार के नियोग का क्रम से वर्णन ]
(१) कोई-कोई कहते हैं कि जो लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्यय का अर्थ है, शुद्ध है, अन्य निरपेक्ष है एवं कार्यरूप है, वही नियोग है । अर्थात् पहले वेदवाक्य के अर्थ को नियोग कहा था इस समय प्रत्यय के अर्थ को नियोग कहते हैं इस तरह से तो परस्पर में विरोध आता है, ऐसी शंका नहीं करना चाहिये क्योंकि गौण मुख्य कथन है । प्रत्यय के द्वारा नियोग का कथन होता है । कहा भी है
श्लोकार्थ - " जो प्रत्यय का अर्थ शुद्ध अग्निहोत्रादि विशेषण से रहित प्रतीति में आता है उसे नियोग कहते हैं और वह कार्यरूप ही है, इसलिये इस वेदवाक्य का अर्थ शुद्ध कार्यरूप है” || १ ||
श्लोकार्थ - एवं जो उस कार्यरूप नियोग का अग्निहोत्रादि कुछ अन्य विशेषण प्रतीति में आता है वह प्रत्यय का अर्थ नहीं है किन्तु वह धातु का अर्थ है, जैसे स्वर्गकामः ||२||
श्लोकार्थ- जो उस कार्यरूप नियोग कार्य की निष्पत्ति के लिये प्रेरकत्व - प्रवर्तकत्व विशेषण है, वह प्रत्ययों से वाच्य अर्थ नहीं है क्योंकि शुद्धकार्य में ही नियोगता होती है ऐसा कहा गया है ।
1 कुत एतदित्याशङ्कय पुरातनं श्लोकत्रयमाह । 2 एव । 3 वेदवाक्ये । 4 कार्यरूपस्य नियोगस्य । 5 अग्निहोत्रादिकम् । 6 यजनमात्रः 7 कार्यस्य स्वनिष्पत्त्यर्थं यत्प्रेरकत्वं प्रवर्त्तकत्वम् । 8 कार्यरूपस्य नियोगस्य । 9 यागकर्मणि । 10 प्रत्ययार्थप्रतिपादकाभावान्मया करणीये (ब्या० प्र० ) । 11 नियोगवादिनाम् । 12 वाक्यान्तर्गत कर्माद्यवयवापेक्षारहिता । 13 प्रेरकत्वम् । 14 सिद्धान्त ।
विशेष - यह नियोगवाद का प्रकरण, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक मूलग्रन्थ के 262 पेज पर एवं हिंदी सहितग्रन्थ की चौथी पुस्तक के 163 पर है । तथा न्यायकुमुदचन्द्रोदय ग्रन्थ के 583 पेज पर है।
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