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________________ २८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ (५) कार्यस्यैवोपचारतः' प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यन्ये । प्रेरणाविषयः कार्य न तु तत्प्रेरक स्वतः । *व्यापारस्तु प्रमाणस्य प्रमेय उपचर्यते ॥७॥ [ प्रमाणवातिकालंकार पृ० ३० (६) कार्यप्रेरणयोः सम्बन्धो नियोग इत्यपरे । प्रेरणा हि विना कार्य प्रेरिका नैव कस्यचित् । कार्य वा प्रेरणायोगो नियोगस्तेन" सम्मतः ॥८॥ [ प्रमाणवातिकालंकार पृ० ३० ] (७) तत्समुदायो नियोग इति चापरे । परस्पराविनाभूतं द्वयमेतत्प्रतीयते । नियोगः समुदायोस्मात् कार्यप्रेरणयोर्मतः ॥६॥ [ प्रयाणवातिकालंकार पृ० ३० ] सहित प्रेरणा ही नियोग कही जाती है । अर्थात् तृतीय पक्ष में कार्य की प्रधानता थी, और यहाँ प्रेरणा की मुख्यता है, जैसे गुरु से सहित शिष्य या शिष्य से सहित गुरु इन वाक्यों में विशेषण विशेष्य भाव से प्रधानता और अप्रधानता हो जाती है, उसी प्रकार यहाँ भी विशेषण को गौण और विशेष्य को मुख्य समझना चाहिये ॥६॥ (५) कोई कार्य को ही उपचार से प्रवर्तक कहकर उसे नियोग कहते हैं अर्थात् वेदवाक्य का जो मुख्य प्रेरकत्व है वह यागलक्षण कार्य में उपचरित किया जाता है उसका नाम उपचार है। कार्य को ही उपचार से प्रवर्तक मानते हैं और उसे नियोग कहते हैं। श्लोकार्थ-वेदवाक्य का व्यापार--याग प्रेरणा का विषय कार्य है (प्रवर्तक है) किंतु वह स्वतः प्रेरक नहीं है। प्रमाण का व्यापार प्रमेय में उपचरित किया जाता है (वेदवाक्य का जो व्यापार है उस यागादि कार्य रूप प्रमेय में प्रमाण का उपचार किया जाता है ॥७।। (६) कार्य और प्रेरणा का संबंध नियोग है अर्थात् याग और वेदवाक्य का संबंध नियोग है, ऐसा कोई कहते हैं। श्लोकार्थ-कार्य के बिना प्रेरणा किसी पुरुष को प्रेरणा नहीं करती है अथवा कार्य और प्रेरणा का योग ही नियोग है ऐसा सम्मत है अर्थात् प्रेरणा के बिना कार्य भी किसी का प्रेरक नहीं है इसलिये प्रेरणा और कार्य का संबंध ही नियोग है" ॥८॥ 1 मुख्यं वेदवाक्यस्य यत्प्रेरकत्वं तद्यागलक्षणकार्य उपचर्यते इत्युपचारः। 2 वेदवाक्यव्यापारः यागः। 3 प्रवर्तकत्त्वम् । 4 वेदवाक्यस्य। 5 यागादी कार्ये । 6 यागवेदवाक्ययोः सम्बन्धः। 7 प्रेरणां विना कार्य कस्यचित्प्रेरकं नंब तेन कारणेन प्रेरणाकार्ययोः सम्बन्धो नियोगः प्रतिपादितः । ४ तयोः प्रेरणाकार्ययोस्तादात्म्यम् । १ तादात्म्यम् 10 यत: कारणात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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