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________________ संसारचक्रात्संवृत्य ब्रह्मण्याधीयते मनः । प्रसन्नचन्द्रवत्तर्हि सद्यः केवलमुद्भवेत् ॥ ९ ॥ अन्वय-संसारचक्रात् संवृत्य यदि ब्रह्मणि मनः आधीयते तर्हि प्रसन्नचन्द्रवत् सद्यः केवलं उद्भवेत् ॥ ९ ॥ अर्थ-यदि संसार चक्र में प्रवर्तमान मन को समेट कर ब्रह्म में लीन किया जाय तो ( पूर्ण कला में ) प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की तरह शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है । संकल्पवातैरूल्लास्यमानं स्यान्मनसः सरः । कलुषं किल तन्मध्यमग्नं किञ्चिन्न वीक्ष्यते ॥ १० ॥ अन्वय-यदि संकल्पवातैः मनसः सरः उल्लास्यमानं स्यात् ( तर्हि ) तन्मध्यमग्नं कलुषं किल किञ्चित् न वीक्ष्यते ॥ १० ॥ अर्थ - पाप पर हमारा दृष्टिपात क्यों नहीं होता उसे समझाते हुए कहते हैं- यदि संकल्प विकल्प रूपी वायु से अन्तसू सरोवर को हिला दिया जाय तो उसके मध्य में स्थित पाप रूपी पंक थोड़ा भी दिखाई नहीं देता जिस प्रकार वायु से हिलाए गए सरोवर के मध्य में स्थित कलुष दृष्टि गोचर नहीं होता है । इस मनके मैलको दूर करनेका उपाय आगे दिखाया गया है । मनोमलविशुध्यै तत् मुनिनिर्दोषमाहरेत् । पर्व पोष्य शेषेऽद्विवेकशोऽशनं शनैः ॥ ११ ॥ अन्वय-तत् मनोमल विशुध्यै मुनिः निर्दोषं आहरेत् । पर्वणि उपोष्य शेषे अह्निद्विग्वा एकशः शनैः अशनं ( कुर्यात् ) ।। ११ ।। अर्थ - अतः साधु को मन के मैल की विशुद्धि के लिए निर्दोष आहार को ग्रहण करना चाहिए । तिथियों के दिनों में उपवास एवं शेष दिनों में एक बार अथवा दो बार धीरे धीरे आहार ग्रहण करना चाहिए । सप्तमोऽध्यायः ६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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