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ज्ञानार्थं गुरवः सेव्या देवा दर्शनपुष्टये । वस्त्रपात्रं चारित्रय धर्मस्तत्त्वत्रयीमयः ॥ ६ ॥
अन्वय - ज्ञानार्थ गुरवः, दर्शनपुष्टये देवाः सेव्याः चारित्राय वस्त्रपात्रं ( सेव्यं) धर्मः तत्त्वत्रयीमयः ॥ ६ ॥
अर्थ - ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरूओं की तथा दर्शन याने श्रद्धा की वृद्धि के लिए देवताओं की सेवा तथा चारित्र की पुष्टि के लिए वस्त्रों तथा पात्रों का - यानि उपकरणों का उपयोग करना चाहिए । इस प्रकार धर्म इन ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की तत्त्वत्रयी से युक्त है
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संशोध्य तपनात्कृत्वा व्रताज्यमकषायकम् । अजरामरता लब्ध्यै निपीतममृतोपमम् ॥ ७ ॥
अन्वय - तपनात् व्रताज्यं संशोध्य अकषायकं कृत्वा अजरामरता लब्ध्यै अमृतोपमं (तं ) निपीतम् ॥ ७ ॥
अर्थ - ( ज्ञान दर्शन और चारित्रयुक्त ) व्रत रूपी घी को तपस्या से शुद्ध कर उसे क्रोध मोह लोभादि कषायों रूपी मलसे रहित कर अमृत जैसे उस घी का पान करो अजर और शाश्वत अवस्थाको प्राप्त करते है । अर्थात् चारित्रको तपसे संशुद्ध करना जरूरी है ।
ज्योतिश्चक्रं यथा व्योम्नि ज्ञाचचक्रं तथा हृदि । दिव्यं मनोभिधानं तद्विश्वविश्वप्रकाशकम् ॥ ८ ॥
अन्वय-यथा व्योम्नि ज्योतिश्चक्रं तथा हृदि ज्ञान चक्रं । मनोभिधानं तत् दिव्यं विश्व-विश्वप्रकाशकम् | ८||
अर्थ - जिस प्रकार आकाश में ज्योतिश्चक्र प्रकाशमान है वैसे ही हृदय में ज्ञानचक्र प्रकाशित है। दिव्य मन रूप यह ज्ञानचक्र सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने वाला
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अर्हद्गीता
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