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________________ पंचमोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐन्द्रस्वरूपं भगवन तवैवाध्यक्षमीक्ष्यते । दर्शय प्रत्ययं धयं यतस्तत्रोद्यमी नरः ॥ १ ॥ अन्वय - हे भगवन् ऐन्द्रस्वरूपं तव एव अध्यक्षं ईक्ष्यते (तत्) प्रत्ययं धर्म्य दर्शय यतः तत्र नरः उद्यमी (स्यात्) ॥ १ ॥ अर्थ - गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा - हे भगवान् यह जो आत्म ज्योति आपको ही दिखाई देती है उस धर्म सम्मत एवं श्रद्धेय स्वरूप को हमें भी दिखाइए जिससे उस ओर लोग उद्यम करें । ५० श्री भगवानुवाच ज्योतिःशास्त्र प्रत्ययो हि यथैव ग्रहणादिना । तथा धर्मस्य वादे दिव्येअस्ति प्रत्ययः स्फुटः ॥ २ ॥ अन्वय-यथा ग्रहणादिना ज्योतिः शास्त्र प्रत्ययो हि तथैव वह्नयादेः धर्मस्य दिव्ये स्फुटः प्रत्ययः ॥ २ ॥ अर्थ - जिस प्रकार सूर्यग्रहण एवं चन्ग्रहण से ज्योतिष शास्त्र पर विश्वास पैदा होता है वैसे ही अग्नि परीक्षा आदि से धर्म ( आत्म धर्म ) का स्पष्ट ज्ञान होता है। विशेष - नारद स्मृति में अग्नि आदि पंच दिव्यों का वर्णन है । प्राचीन काल में सच्चाई की परीक्षा के लिए अग्नि परीक्षा, जल परीक्षा, तप्तपान परीक्षा आदि का प्रचलन था एवं उससे धर्म की सच्चाई का विश्वास होता था । कुमारी वा कुमारः स्यात् करावतरणादिषु । प्रयोज्यः शकुनादौ वा स एष शील निश्चयः ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only अहंदूगीता www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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