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"पंचमोऽध्यायः”
शान्त सुधारस से धर्म प्राप्ति
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[पांचवे अध्याय में गौतम स्वामी ने भगवान् से धर्माधर्म की पहचान पूछी है। भगवान् ने उत्तर दिया-जिस प्रकार सूर्य चन्द्र ग्रहण से ज्योतिष शास्त्र पर विश्वास उत्पन्न होता है वैसे ही तत्त्व ज्ञान से धर्म का स्पष्ट दर्शन होता है। देव-पूजा, तीर्थयात्रा, साधु-दर्शनादि निश्चय रूप से सद्धर्म के परिचायक हैं वैसे ही हिंसक मिथ्याभाषी, चौर एवं परस्त्रीगामी दुष्ट अथवा लोभी में अधर्म का आभास होता है। दाता, दयालु, सत्य वक्ता अथवा भगवान् के भक्तों की संसार में प्रशंसा होती है। वैद्य नाड़ी परीक्षण से वात-पित्तादि रोगों का निदान करता है वैसे ही मन की गति एवं तदनुसार वर्तन से धर्म-अधर्म की स्थिति को जाना जा सकता है। दया, दान, यम, नियम आदि धर्म विधानों को संसार के सभी धर्मशास्त्र एवं मत से स्वीकार करते हैं। संसार में धर्ममूल शान्त सुधारस की साधना ही श्रेष्ठ है। संसार के अन्य शृंगार वीर करुणादि रस मोहकारक हैं जिससे आत्म मार्ग भ्रष्ट हो जाता है। शान्त-सुधारस से आत्मा वैरागी विवेकी एवं ज्ञानवान बनती है जिससे वह जगत्पूज्य बनती है।]
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पचमोऽध्यायः
अ. गी.-४
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