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अर्थ - इस परम ज्योति की महती कृपा से विषयों में व्याप्त व्यक्ति भी उनसे अलिप्त रहता है यह परम ज्योति उन्नत दक्षिणावर्त शंखराज की तरह पवित्र है उच्च हैं
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राज्ञस्तेजोऽर्कवत्साक्षा - नैव नैशतमोपहम् । तथैव दीपयेन्न्याय - धर्ममिन्द्रमहस्तथा ॥ ४ ॥
अन्वय-राज्ञः तेजः अर्कवत् साक्षात् नैशतमोपहं न तथैव न्यायधर्म दीपयेत् तथा इन्द्रमहः ॥ ४ ॥
अर्थ - यद्यपि राजा का तेज सूर्य की भाँति साक्षात् रात्रि के अंधकार को दूर नहीं करता है तथापि उसकी प्रतापाग्नि से न्यायधर्म सुप्रकाशित रहते हैं। वैसे ही आत्म ज्योति सूर्य की भाँति साक्षात् तो नहीं है पर उससे संसार में न्याय एवं धर्म आलोकित हो रहे हैं, गति प्राप्त कर रहे हैं
सेविता एव संशुध्यै विषया नंदिषेणवत् ।
क्षारमृन्मेलनात् किं स्यात्सद्यः शुद्धः न चीवरम् ॥ ५ ॥
अन्वय- संशुध्यै एव नंदिषेणवत् विषया सेविता किं क्षारमृत् मेलनात् सद्यः चीवरं शुद्धं न स्यात् ? ॥ ५ ॥
अर्थ- प्राचीन काल में नंदिषेण मुनि ने आत्म शुद्धि के लिये विषयों का सेवन किया क्या खारी मिट्टी में मैला कपड़ा रखने से वह शुद्ध नहीं होता है ? अर्थात् मिट्टी भी मैले कपड़े को साफ कर देती है बस उसमें क्षार चाहिए वैसे ही विषय भी आत्म शुद्धि कर सकते हैं पर उनमें स्निग्धता नहीं होनी चाहिए वरन् क्षार होना चाहिए। अर्थात् विषयों के प्रति अनासक्ति होनी चाहिए ।
देवतामिव निसेवतां विषेनोन्मितं विषयजं सुखं सुधीः । चित्तधैर्यविधयेति किं जनो नाहिफेनमपि कार्यसाधनम् ॥ ६ ॥
प्रध्याय तृतीयः
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