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अध्याय तीसरा
ज्ञान अमृत है
[ गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा हे नाथ ! आत्मज्योति सूर्य चन्द्रादि प्रकाशपिण्डों की तरह साक्षात् क्यों नहीं दिखाई देती है, एवं वह शाश्वत क्यों है ? भगवान ने उत्तर दिया, सूर्य चन्द्रादि प्रकाश पिण्डों की ज्योति विषय कषायों को उत्पन्न करने वाली है, पर परमात्म ज्योति उनका नाश करनेवाली हैं । लोक में जिस प्रकार राज तेज साक्षात् दिखाई नहीं देता है परन्तु उसकी दुहाई सर्वत्र व्याप्त रहती है वैसे ही आत्मज्योति दृष्टिगत नहीं होती है पर उसका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त है । उसे वही प्राप्त कर सकता है जो अनासक्त है । अनासक्त भाव से विषयों का सेवन करते हुए भी नन्दीर्घेण मुनि ने आत्मज्ञान को प्राप्त कर लिया था । आत्मज्ञान की प्राप्ति से संसार में विवेक पथ प्रशस्त हो जाता है इसी से दान, तप, शील, एवं भाव क्षणभर में ही मोक्ष को प्रदान कर देते हैं क्योंकि ज्ञान बिना प्राणी राग द्वेषादि कायों में पड जाता है एवं विनष्ट हो जाता है । इस ज्ञान भानु के प्रकाशित होनेपर सम्यग् ज्ञान प्रकट होता है जिस से परिग्रहादि भावनाओं का नाश होता है। इस प्रकार आत्मज्ञानी अशुभ ध्यान को रोकनेवाली निर्विकारी क्रियाओं को करता हुआ मोक्षरूप आनन्द में रमण करता है । ]
अध्याय तृतीयः
अ. गी. - ३
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