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अर्थ-सूर्य में छ मास पर्यन्त एवं आभूषणों में वर्षभर तेज रहता है, परन्तु इच्छा रूपी मल से रहित परमात्मज्योति तो शाश्वत है चिरन्सन है।
ऐन्द्रमेवान्तरं चक्षुज्ञानं जन्तोः समुन्मिषेत् । तदा स चक्षुष्मान् विश्वं पश्येदात्मसमं शमी ॥ १० ॥
अन्वय-जन्तोः ऐन्द्रं एव आन्तरं ज्ञानं चक्षु ( यदा) समुन्मिषेत् तदा स चक्षुष्मान् शमी विश्वं आत्मसमं पश्येत् ॥ १० ॥
अर्थ-प्राणियों की आत्मज्ञान रूपी आन्तरिक ज्योति जब प्रकाशित होती है तभी ज्ञानचक्षुष्मान् शान्त आत्मा समग्र संसार को अपने ही समान देखता है।
दीपः प्रकाशयेद्नेहं मण्डलं रविमण्डलम् । ऐन्द्रं ज्योतिर्जगत्पूज्यं लोकालोकप्रकाशकम् ॥ ११ ॥
अन्वय-दीपः गेहं प्रकाशयेत् रविमण्डलं मंडलं ऐन्द्रं ज्योतिः जगत्पूज्यं लोकालोकप्रकाशकम् ॥११॥
अर्थ-दीप अपने प्रदेश घर को ही प्रकाशित करता है एवं सूर्यमण्डल सौरमण्डल को आलोकित करता है। परन्तु आत्म-ज्योति तो समग्र संसार को प्रकाशित करने वाली है इसलिए जगत् में पूज्य है।
द्रव्यप्रकाशात् सूर्यादेयत्तमो न विलीयते । तद् ज्ञानभानुना नाश्यं धर्माचरणकारिणा ॥ १२ ॥
अन्वय-सूर्यादेः द्रव्यप्रकाशात् यत् तमः न विलीयते तद् (तमः) धर्माचरणकारिणा ज्ञानभानुना नाश्यम् ॥ १२॥
अर्थ-सूर्य आदि के द्रव्य प्रकाश से जो अज्ञानभावान्धकार विलीन नहीं होता है उस भावान्धकार को धर्माचरणकारी ज्ञान सूर्य से अवश्य नष्ट कर देता है।
एलरा अभ्याष
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