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________________ ऐन्द्रं ज्योतिर्नतास्त्विन्द्राः शक्रचक्रभृतोऽधिपाः । इन्द्रानुजार्कचन्द्राद्या मणयो जगदम्बुधौ ॥ ६ ॥ अन्वय-शक्र चक्रभृतः अधिपाः इन्द्राः तु ऐन्द्रं ज्योतिः नताः इन्द्रानुजार्कचन्द्राद्या जगदम्बुधौ मणयः ॥ ६॥ ___ अर्थ-इन्द्र पदवी को धारण करने वाले, चक्रवर्ती राजेन्द्र भी इस आत्म ज्योति के समक्ष नतमस्तक होते हैं। इन्द्र, सूर्य एवं चन्द्र तो संसार सागर में ही महत्त्व रखते हैं पर आत्म ज्योति के समक्ष वे निस्तेज हैं। ___ जीवयोनिषु मानुष्यं मुख्यं तत्र सुबोधिता। - तत्रापि केवलं ज्ञानं तच्चित्तं परमर्हति ॥ ७ ॥ अन्धय-जीवयोनिषु मानुष्यं मुख्यं तत्र सुबोधिता तत्रापि केवलं ज्ञानं तच्चित्तं परं अर्हति ॥७॥ अर्थ-समस्त जीवयोनियों में मनुष्य जन्म प्रधान है, मनुष्य जन्म में सद्ज्ञान का महत्व है एवं सद्ज्ञान में केवलज्ञान मुख्य है और वह केवलज्ञान भी अर्हद् भगवान में है। क्षणिक विद्युतस्तेजो दीपे मौहर्तिकं च तत् । घस्रे देवसिकं धिष्ण्ये रात्रिकं पाक्षिकं विधौ ॥ ८ ॥ अन्वय-विद्युतः तेजः क्षणिकं दीपे च तत् तेजः मौहतिक घस्ने दैवसिकं (तेजः ) धिष्ण्ये रात्रिकं विधौ च पाक्षिकं ॥ ८॥ अर्थ-विद्युत का तेज क्षणिक होता है और दीप में मुहूर्त भर का तेज होता है। सूर्य में दिवस-पर्यन्त तेज रहता है, नक्षत्र में तेज रात्रि भर ही होता है तथा चन्द्रमा में पखवाड़े भर ही तेज रहता है । अयनं तु सहस्रांशी भूषणे वार्षिकं महः । इच्छामलविनिर्मुक्तं ऐन्द्रं ज्योतिस्तु शाश्वतम् ॥ ९ ॥ अन्वय-सहस्रांशी अयनं भूषणे तु वार्षिकं महः। इच्छामलविनिर्मुक्तं ऐन्द्रं ज्योतिः तु शाश्वतम् ॥९॥ अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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