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अन्वय-ज्ञानं धर्मः तस्य धर्मी परमात्मा इति गीयते। मोहरूप अज्ञानमुक्तः ऐन्द्रं ज्योतिः स्फुटं भवेत् ॥ ३ ॥
.. अर्थ-ज्ञान ही धर्म है एवं उसके धर्मी आत्मा का ही परमात्मा रूप में गायन किया जाता है जब यह आत्मा मोहरूपी अज्ञान से मुक्त हो जाती है तो इसमें परमेश्वर का प्रकाश प्रकट होता है।
इन्द्र आत्मा तदन्वेष्टा श्रवणान्मननाद्गुरोः । ध्यानेन साक्षात्कारेण स हि श्रावक उच्यते ॥ ४ ॥
अन्वय-गुरोः श्रवणात् मननात् तत् अन्वेष्टा आत्मा इन्द्रः । ध्यानेन साक्षात्कारेण स (आत्मा) हि श्रावक उच्यते ।। ४ ।।
अर्थ-गुरु के वचनों को सुनने व उन पर मनन करने के कारण उस परमात्मा का अन्वेषण करने वाला आत्मा ही परमात्मा है। उसी आत्मा का ध्यान एवं परमात्मा का साक्षात्कार करने वाला श्रावक कहा जाता है।
विवेचन--गुरु वचन को सुनकर उस पर मनन कर एवं आत्म साक्षात्कार करनेवाला आत्मा ही परमात्मा है।
यच्चिह्नमिन्द्रियं लोके ज्ञेया तेनेन्द्रतात्मनि । तज्ज्योतिश्चेत्प्रसन्नं स्यानश्येत्तर्हि तमोभरः ॥ ५॥
अन्वय-लोके इन्द्रियं यत् चिह्नं तेन आत्मनि इन्द्रता ज्ञेया । तत् ज्योतिः चेत् प्रसन्नं स्यात् तर्हि तमोभरः नश्येत् ॥५॥
अर्थ-संसार में इन्द्रियाँ जिसका चिह्न है उसे इन्द्र कहा जाता है अर्थात् आत्मा ही इन्द्र है। आत्मा में परमात्मा को जानना चाहिये। यदि आत्मा की वह ज्ञान ज्योतिः स्फुरित हो जाय तो अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है।
विवेचन-इन्द्रिय के यहाँ दो अर्थ है-आत्म सम्बन्धी एवं इन्द्रिय सम्बन्धी । चिह्न के भी दो अर्थ है लक्षण एवं कार्य। आत्म-ज्योति के प्रसन्न होने का अर्थ है विकसित होना क्योंकि प्रसन्नता ही विकास का कारण है।
अध्याय दूसरा
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