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________________ अध्याय-२ श्री गौतम उवाच ऐन्द्रं ज्योतिर्जगज्ज्येष्ठं श्रेष्ठं केवलमुज्ज्वलम् । सिद्धमार्हत्यमाबिभ्रत् कथं तत्प्रकटीभवेत् ॥ १॥ अन्वय-सिद्धं आहत्यं आबिभ्रत् जगज्ज्येष्ठं श्रेष्ठं केवलं उज्ज्वलं (यत् ) ऐन्द्रं ज्योतिः तत् कथं प्रकटीभवेत् ॥१॥ अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने पूछा हे भगवन् ! अनादि सिद्ध अरिहन्त पद को धारण करने वाली संसार में सबसे बड़ी सर्वश्रेष्ठ एवं केवल जो उज्ज्वल ही है ऐसी परमात्म ज्योति कैसे प्रकट होती है। विवेचन-यहाँ आत्मा के ज्ञान प्रकाश को संसार की समस्त ज्योतियों से श्रेष्ठ बताया गया है। श्री भगवानुवाच परमैश्वर्यभागिन्द्रः शान्तं कान्तं च तन्महः । ज्ञानलक्षणमाम्नातं ख्यातं धर्मपदेन तत् ॥ २ ॥ अन्वय-इन्द्रः परमैश्वर्यभाक् शान्तं कान्तं च तन्महः ज्ञानलक्षणं आम्नातं तत् धर्मपदेन ख्यातम् ॥२॥ ____ अर्थ-आत्मा परमेश्वर के ऐश्वर्य से युक्त है तथा उसकी ज्योति शान्त तथा कान्त है। ज्ञान उसका प्रसिद्ध लक्षण कहा गया है एवं धर्म मार्ग में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। एवं धर्मपद से वह प्रसिद्ध है । विवेचन-' तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' में ज्ञान के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए 'उपयोगो लक्षणम्' कहा गया है । अर्थात् ज्ञान ही आत्मा का लक्षण है। ज्ञानं धर्मस्तस्य धर्मी परमात्मेति गीयते । मोहरूपाज्ञानमुक्तः ऐन्द्रं ज्योतिः स्फुटं भवेत् ॥ ३॥ अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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