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विवेचन--सूय का प्रकाश द्रव्यान्धकार को नष्ट कर सकता है भावान्धकार दूर कर आत्म ज्योति को विकसित करने में तो ज्ञान सूर्य ही सक्षम है ।
येनाचारेण यावत् स्यात् ज्ञानिनो मोहवर्जनम् । तावान् धर्मोदयस्तत्र गतिस्तदनुसारिणी ॥१३॥
अन्वय-येन आचारेण ज्ञानिनो मोहवर्जनम् यावत् स्यात् तावान् तत्र धर्मोदयः तद्गतिः धर्मानुसारिणी ॥१३॥
अर्थ-जिस ज्ञान के आचार से ज्ञानी के आचार से ज्ञानी के मोह का जितना अधिक नाश होगा उतना ही उसके हृदय में धर्म का उदय होगा। गति तो धर्म का अनुसरण करने वाली है।
(गतिधर्मानुसारिणी) स्वल्पोऽपि धर्मसंसिद्धो सौवयं कुरुतेऽयसः ।। भावितो विविधैर्भावैर्ज्ञानधर्मस्तथांगिनः ॥ १४ ॥
अन्वय-विविधैः भावैः भावितः स्वल्पः अपि धर्मसंसिद्धः अगसः सौवयं कुरुते तथा अंगिनः ज्ञानधर्मः (अपि करोति)॥१४॥
अर्थ-नाना प्रकार के पुट देकर थोड़े भी सिद्ध रस के स्पर्श से कर्मकुशल लोहे से सोना बना देता है वैसे ही ज्ञानी थोड़े भी विशुद्ध धर्म एवं शुद्ध भावना से अनित्यादि १२ भावनाओं एवं मैव्यादि ४ भावनाओं को भावना करने से अपने लोह तुल्य अज्ञानावृत्त आत्मा को शुद्ध सुवर्णरूप ज्ञानमय कर देता है।
महान्मोहोदयो यस्मिन्नाचारे धर्मतानवम् । त्याज्यः स धर्माचारोऽपि शक्तेनारोहकर्मणि ॥१५॥
अन्वय-यस्मिन् आचारे धर्मतानवम् महान् मोहोदयः (च) आरोहकर्मणि शक्तेन स धर्माचारः अपि त्याज्यः ॥१५॥
__ अर्थ-जिस आचार में धर्म की हीनता हो एवं महान् मोह का उदय हो, उच्च मार्ग पर बढ़ते हुए समर्थ को यदि वह धर्माचार भी लगे तो उसे छोड़ देना चाहिए।
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अर्हद्गीता
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