________________ अर्थ-छन्द शास्त्र में कर्णकटु एवं असंस्कृत दुष्ट वाक्य को त्याग दिया जाता है। जिन शब्दों से गंवारूपन झलकता है ऐसे पदों का चयन नहीं किया जाता है। उसी प्रकार साधु मार्ग में कर्णकटु, असंस्कृत दुष्ट वाक्य एवं ऐसे सभी काम छोड़ दिए जाते हैं जिनसे अविवेकी रूप प्रकट होता है / च्छंदोविशारदैरेवमादर्शि शिवशर्मणे / धर्मस्तस्मानित्यसुखं श्रीमेघविजयोदयः // 20 // अन्वय-एवं धर्मः शिवशर्मणे च्छंदोविशारदैः एवं आदर्शि तस्मात् नित्यसुखं श्री मेघविजयोदयः // 20 // अर्थ-इस प्रकार का धर्म संसार के सुख कल्याण के लिए छन्द ( नीति ) विशारद ज्ञानियों ने बताया है उसके आचरण से नित्य सुख की प्राप्ति होगी ऐसा श्री मेधविजयजी उपाध्याय कहते हैं / आद्यं सर्वगुरुस्वरूपमुचितं जीवप्रकृत्यात्मकं, प्रान्ते सर्वलघुक्रियं परिणतं सिद्धं सुबुद्धं शिवम् / / च्छन्दः शास्त्रगणेऽखिले वरकुले जात्या विशिष्टेप्यहो मन्येऽकारनिदर्शनं गुरुलघुस्थित्याहतो वाचकम् / / 21 // . अन्वय-आद्यं जीवप्रकृत्यात्मकं सर्वगुरुलघुरूपं उचितं प्रान्ते सर्वलघुक्रियं सिद्धं सुबुद्धं शिवं परिणतं च्छन्दशास्त्रगणे अखिले विशिष्ट अपि वरकुले जात्या गुरुलघुस्थित्या अकारनिदर्शनं अर्हतः वाचकं मन्ये // 21 // अर्थ-जीव जन्म से प्रारम्भ में सर्वगुरूरूप अर्थात् अष्ट कर्मों से आवृत्त रहता है एवं अन्त में समस्त कर्मों का विच्छेदन कर सिद्ध सुबुद्ध एवं मोक्ष पद को प्राप्त करता है / छन्द शास्त्र में भी प्रथम गण मगण के तीनो अक्षर गुरु होते हैं तथा अन्तिम गण नगण के तीनों अक्षर लघु होते हैं / सम्पूर्ण छन्द शास्त्र में विशेष रूप से अकार के गुरु एवं लघु सर्व स्वरूपों के विवेचन से अर्हत् का ही निदर्शन किया है ऐसी मेरी मान्यता है। // इति श्रीअर्हद्गीतायां कर्मकाण्डे षट्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ ** * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org