________________ ... अन्वय-ये लोके मीमांसाहता येषां मन्युक्रिया प्रिया तै: क्वचित् समये सर्वशो ईश्वरः न प्राप्यते // 17 // -लोके ये मीमांसात् ऋता, येषां मन्युक्रिया प्रिया तैः क्वचित् समये सर्वशईश्वरः न प्राप्यते // 17 // __ अर्थ-(किन्तु ) जो संसार में मीमांसा दर्शन में विश्वास करते हैं, जिन्हें हिंसायुक्त यज्ञ कर्म प्यारा है अथवा हिंसक यज्ञकर्म प्रिय हैं वे ईश्वर की सिद्धि नहीं कर सकते हैं। संसार में जो लोग विचार शून्य एवं क्रोधी हैं वे कभी भी सर्वज्ञ ईश्वर की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं / मीमांसा + आदृता मीमासाश्रयी मीमांसात् + ऋता-विचार शून्य / नित्यरतियतिस्थानेमतिर्दण्डकनिश्चये / गतिः शनिः पदन्यासे दिव्याकृतिषु संस्कृतिः // 18 // अन्वय-यतिस्थाने नित्यं रतिः दण्डकनिश्चये मतिः पदन्यासे शनैः गतिः कृतिषु दिव्या संस्कृतिः // 18 // : अर्थ-जिस प्रकार छन्द में वाचक की यति (विराम ) स्थान में रति रहती है एवं उसकी बुद्धि छन्द का निर्णय करने में एवं पदयोजना के मांगलिक वर्णो की तरफ रहती है जिससे दिव्य आकार में छन्द ढलता है वैसे ही जिनकी रूचि सदैव साधुपने में, बुद्धि 24 दण्डकों के निर्धारण में एवं विहारादि में मन्दगति होती है, विद्वानों में उनकी संस्कृति दिव्य मानी जाती है। पदं श्रुतिकटुत्याज्यं दुष्टं वाक्यमसक्रियम् / यतः स्याद्ग्राम्यधर्मस्यो-द्दीपनं घ्रियते न तत् / / 19 // अन्वय-श्रुतिकटुपदं असक्रियं दुष्टं वाक्यं त्याज्यं यतः ग्राम्य धर्मस्य उद्दीपनं स्यात् तत् न ध्रियते // 19 // षट्त्रिंशत्तमोऽध्यायः 331 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org