________________ भवानुरागो क्रमतो गौरवं लाघवं भजन् / सांगलाघवाद्धत्ते-ऽकारोर्हन्नार्जवं हि सः // 12 // अन्वय-भवानुरागः क्रमतः गौरवं लाघवं भजन् अकारो अर्हन् सर्वाङ्गलाघवात् सः हि आर्जवं धत्ते // 12 // .. अर्थ-जीवात्मा अकार संसार के राग की वृद्धि या न्यूनता के कारण कम से गुरुता या लघुता को धारण करता है। अर्हन् स्वरूप अकार अपने सभी अंगों की लघुता के कारण सरलता अर्थात् सीधी रेखा (1) संज्ञाको धारण करता है। भवानुराग युक्त जीवात्मा का वाचक (अ+अ) आकार जुड़नेसे वक्राकार (5) संज्ञामें व्यक्त होता है। छन्द शास्त्र में यही ( / ) गुरु लघु कहे जाते हैं। आकृतौ विकृतिर्नास्य शिवोयमूर्ध्वगामुकः / प्रस्ताराद्विरतच्छन्दो विश्रामायैव केवलः // 13 // अन्वय-अस्य आकृतौ विकृतिः न अयं शिवः ऊर्ध्वगामुकः प्रस्ता. रात् विरतच्छन्दः केवलः विश्रामाय एव // 13 // .. अर्थ-ह्रस्व अकार की आकृति में किसी प्रकार की विकृति नहीं। है। शिवस्वरूपी यह अकार आत्मा उर्ध्वगमन का अभिलाषी है। वर्ण एवं मात्रा के प्रस्तार से निवृत्त कामना रहित आत्मा मोक्ष के लिए (विश्रामाय) केवलज्ञान को प्राप्त करती है। छन्द शास्त्र में छन्दों के भेद एवं उनमें रूपों के वर्णन को प्रस्तार कहते हैं। इसके दो भेद हैं वर्णप्रस्तार एवं मात्राप्रस्तार / छन्द की समाप्ति को यति कहते हैं जो विश्राम की अवस्था होती है। यस्याकृतिर्लिपिन्यासे वक्रा विकृतिभागगुरोः। . तस्याकारस्य वाच्योंगी युक्तः प्रस्तारवानयम् // 14 // अन्वय-लिपिन्यासे यस्य आकृतिः गुरोः वका विकृतिभाक् तस्य अकारस्य वाच्य युक्तः अंगी अयं प्रस्तारवान् // 14 // पत्रिंशत्तमोऽध्यायः 329 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org