________________ मन्दारः स्वष्टदानेषु यैकारोऽर्हन् युगादिजः / राजराट् प्रथमो योगी सहितः प्रभया रवेः / / 9 / / अन्वय-स्वेष्टदानेषु मन्दारः यः अकारः अर्हन् युगादिजः रवैः प्रभया सहितः स राजराट् प्रथमो योगी // 9 // अर्थ-इष्टदान देने में जो मन्दारः कल्पवृक्ष के समान हैं जो अकाररूप अर्हत् युग में सर्व प्रथम जन्मे हैं, सूर्य की प्रभा से युक्त है वे राजराज ऋषभदेव संसार में प्रथम योगी हैं। तस्मात्तीर्थेश एवान्ये जयंत इह जज्ञिरे / सर्वे भावत एतेषां गणना गणवर्णवत् // 10 // अन्वय-तस्मात् भावतः तीर्थेश एव अन्ये सर्वे जयन्त इह जज्ञिरे एतेषां गणना गणवर्णवत् // 10 // अर्थ-अतः तारक भाव से इन्हें तीर्थेश कहते हैं दूसरे सब इन्हें जिन कहते हैं इनकी गणना 8 गणों के 24 वर्णों की तरह ही मानी जाती है अर्थात् ये जिन 24 हैं। प्रत्येक गण में तीन अक्षर होते हैं। गणों की संख्या आठ हैं। इस प्रकार आठों गणों में 24 वर्ण होते हैं जो 24 तीर्थङ्करों के वाचक हैं। लोके नयनतुल्यास्ते गुरुतां प्राप्य लाघवात् / शिवस्वरूपमापन्ना-च्छंदोमार्गानुरोधिनः // 11 // अन्वय-छन्दोमार्गानुरोधिनः ते लोके नयनतुल्याः लाघवात् गुरुतां प्राप्य शिवस्वरूपं आपन्ना // 11 // ___अर्थ-नीति (छन्द ) मार्ग पर चलाने वाले वे तीर्थङ्कर भगवान् संसार में नेत्रों के समान-पथप्रदर्शक हैं। उन्होंने स्वपुरुषार्थसे लघुता से उपर उठकर बडप्पन प्राप्त कर मोक्षपद को प्राप्त किया है। यहाँ लघु एवं गुरु / 7 का संकेत किया गया है। 328 अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org