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________________ अर्थ-सुबुद्धि का पोषण करता हुआ दोनों बाजुओं में उपाधि की लघुता धारी जगण / ऽ। आन्तर गौरवशाली है / नीति पूर्वक मध्य लघु रगण का विरोधी यह मध्यगुरु जगण जगत में केन्द्रस्थ सूर्य के समान प्रकाशमान है / जगण का देवता सूर्य है / जगण / ऽ। रगण ऽ।ऽ का ठीक विपरीत होता है। भगवान् भगणः श्रेयान् साक्षाद्गुरुमुखो हि सः। कीर्तिश्चन्द्रमसाकान्ते-र्धाता भावत एव यः // 7 // अन्वय-भावतः एव यः कान्तेः धाता भगवान् भगणः श्रेयान् सः हि साक्षाद्गुरुमुखः चन्द्रमसा कीर्तिः // 7 // अर्थ-स्वभाव से ही प्रकाश के धारक (भास्वर / / ) परमात्म स्वरूप भगण मंगलकारी हो। इस भगण का पहला अक्षर गुरू होता है इसका देवता चन्द्रमा तथा फल यशलाभ होता है। चन्द्रमा के समान शीतल एवं यशस्वी परमात्मा गुरूमुख से साक्षात् होते हैं। वे तेजोमय परमात्मा हमारे कल्याण के लिए हों। शिवानयनकृद् यस्य स्थिति वितनन्दिनी / नगणः स सदा नम्यो गुणैर्नगणनान्वितैः // 8 // अन्वय-गुणैः नगणनान्वितैः स नगणः सदा नम्यः यस्य स्थितिः शिवानयनकृद् जीवितनन्दिनी // 8 // अर्थ-गणनातीत गुणों के द्वारा युक्त होने के कारण उस नगण रूप ऋषभ का नमन करना चाहिए जिसकी स्थिति मंगलप्रद एवं प्राणियों को हर्षित करने वाली है। नगण (1 / / ) में तीनों लघु होते है आदि मध्य एवं अन्त / ऋषभ शब्द में भी नगण ( / / / ) है। अतः वे गणनातीत नगणसे वाच्य हैं। ___यहाँ अर्यमा केवल सूर्यवाची है इसका यहाँ गणसे सम्वन्ध नहीं है। षट्त्रिंशत्तमोऽध्यायः 327 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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