________________ यः सदा रगणे लग्नो नग्नोऽस्य गौरवं क्षितौ / न चित्रमादावन्तेऽपि अन्तर्लघुतयाङ्गिनः // 4 // अन्वय-यः सदा रगणे लग्नः नग्नः अस्य गौरवं क्षितौ। अङ्गिनः अन्तलघुतया आदौ अन्तेऽपि न चित्रम् // 4 // अर्थ-जो सदा रगण ( अग्निरूप तपश्चर्या ) में लीन हैं, निरम्बर हैं एवं जिनका गौरव पृथ्वी पर स्पष्ट दिखाई देता है उनका आदि एवं अन्त यदि गौरवशाली रहा हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं क्योंकि आत्मा भी मध्म में ही लघुरूप हो गई है। उसका आदि और अन्त तो महान् ही रहा है / ऋषभदेव भगवान् भी पहले सम्राट और बाद में प्रथम तीर्थंकर हुए केवल साधनावस्था में ही साधुरूप ( लघु स्थिति) में रहे। यह रगण / / ऋषभदेव भगवान् की आदि, मध्य एवं अन्त तीनों अवस्थाओं का द्योतक है। सहिताः सगणो वर्णे स्विमिर्वन्योऽन्तगौरवात् / तीर्थेशभावात्तगणं भजतेऽनुक्रमेण यः॥५॥ अन्वय सहिताः सगणः, अंतगौरवात् त्रिभिः वर्णैः वन्द्यः यः अनुक्रमेण तीर्थेशभावात् तगणं भजते // 5 // अर्थ-संसार के हितैषी ( सहिता / / 5) अन्तः गौरवशाली सगणरूप भगवान तीनों वर्णों द्वारा पूज्यनीय हैं, गौरवशाली हैं। जगत् के तारक भावों के कारण वे तीर्थेश तगणरूप कहलाये अनुक्रम से उन्हें अन्तलघु ( निरुपाधी) मोक्षपद की प्राप्ती हुई। अन्तर्गुरुधियं पुष्यन् पार्श्वे लघुतयोषधेः / रगणं च द्विषन्नीत्या जगणो जगदर्यमा // 6 // अन्वय-अन्तःगुरु धियं पुष्यन् पार्श्व उपधेः लघुतया नीत्या रगणं च द्विषन् जगणः जगत् अर्यमा // 6 // अहद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org