________________ षत्रिंशत्तमोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐक्यं न दृश्यते धर्मे नानाशास्त्रीयवार्तया / श्री वर्धमान तन्मे त्वं धर्मतत्त्वं निवेदय // 1 // अन्वय-श्री गौतम उवाच नानाशास्त्रीयवार्तया धर्मे ऐक्यं न दृश्यते श्री वर्द्धमान तन्मे त्वं धर्मतत्त्वं निवेदय // 1 // __ अर्थ-श्री गौतमस्वाभी ने भगवान से पूछा हे वर्द्धमानस्वामी ! नानाशास्त्रों की बातों से धर्म की एकता प्रतिपादित नहीं होती है अतः . आप मुझे धर्म का तत्त्व समझाइए / वृत्ते ज्ञाने दर्शने वा सर्वस्मिन्नक्षरत्रये / यस्य गौरवमेवास्ति श्रिये स मगणोऽर्हताम् // 2 // अन्वय-श्री भगवानुवाच वृत्ते ज्ञाने दर्शने वा सर्वस्मिन् अक्षरत्रये यस्य गौरवं एव अस्ति स अर्हतां मगणः श्रिये // 2 // छन्दशास्त्र में भी अर्हत स्वरूपनिदर्शन अर्थ-दर्शन ज्ञान तथा चारित्र के सभी तीनों प्रथमाक्षरों में जिनका गुरुत्व है ऐसे अर्हतो का गौरववाची सर्व गुरु मगणरूप आपके कल्याण के लिए हो। संयुक्ताद्यं दीर्घ-संयुक्त अक्षरात् प्रथम हृस्वाक्षरं दीर्घ मन्यते / संयुक्त अक्षरों के पूर्व में आनेवाला ह्रस्व अक्षर गुरू माना जाता है दर्शन में र+श संयुक्त अक्षर हैं तो उनके पहले का द वड़ा अर्थात् गुरू. 5 रूप होगा। -श्रुतबोध (कालिदास) 324 अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org