________________ अन्वय-ॐकारकेवलज्ञानं सिद्धः प्राक् एव दर्शितः चारित्रात् त्यागसिद्धः अः, भक्तिशीलनात् अं सिद्धः // 16 // अर्थ-ॐकार केवलज्ञान स्वरूप है यह पहले ही सिद्ध कर . चुके हैं / चारित्रपूर्वक जो त्याग किया जाता है वह अः वाची है। (विसर्ग त्याग सूचक है।) असे अ के विवर्तों का त्याग होता है / अः अतिम विकार स्वरूप है / भक्ति और शीलसे अं सिद्ध होता है। योगेऽनयोः स्यादोंकारः पुरोऽस्यार्थस्य दर्शनात् / नरांगरूपं यस्त्यागो विसर्गः सिद्धताऽनयोः // 17 // अन्वय-अनयोः योगे ओंकारः स्यात् पुरः अस्य अर्थस्य दर्शनात् नरांगरूपं यः त्यागः विसर्गः अनयोः सिद्धता // 17 // अर्थ-इन अं तथा अः के योग से ओंकार बनता है। पहले अःका स्वरूप बता चुके हैं कि मनुष्य का शरीर धारण कर जो त्याग किया जाता है वही विसर्ग है इन अं अः की सिद्धता स्वतः सिद्ध है। विसर्गप्रकृतेरेफस्याग्नेः केवलसेवनात् / सिद्धः केवलभक्त्या वा तौ पुनर्भवभाजनम् // 18 // अन्वय-विसर्गप्रकृतेःरेफस्याग्नेः केवलसेवनात् केवलभक्त्या वा सिद्धः तौ पुनर्भवभाजनम् // 18 // अर्थ-(अः में ) विसर्ग प्रकृत्ति वाला जो रेफ है वह (माया सूचक) अग्निबीज है मात्र उसका आश्रयण या भक्ति दोनों ही पुनर्भवकारी हैं। अर्थात् अं और अः युक्त ॐ ही मोक्ष वाची है। नमः शब्देन विनयो भक्तिर्वा विनयो व्रतम् / विशिष्टो वा नयः शास्त्र ज्ञानं सिद्धस्त्रयादतः / / 19 / / अन्वय-नमः शब्देन विनयः भक्तिः चा विनयः व्रतम् विशिष्टो चा नयः त्रयात् अतः शास्त्रज्ञानं सिद्धः॥१९॥ पंचत्रिंशत्तमोऽध्यायः अ. गी.-२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org