________________ काद्या ढान्ताः स्मृताः स्वर्गा द्वादश त्रिदशान्विताः। ऊकाराद्या विसर्गान्ता नव ग्रैवेयकान्यपि // 13 // अन्वय-काद्या ढान्ता त्रिदशान्विताः द्वादश स्वर्गाः स्मृताः ऊकाराद्या विसर्गान्ता अपि नष ग्रैवेयकानि // 13 // अर्थ-क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ आदि देवताओं से भरे हुए 12 स्वर्ग कहे गए हैं ऊ ऋ ऋल ए ऐ ओ औ अः पर्यन्त नौ स्वर नव अवेयकों के वाचक हैं। न ऋवर्णाद् लुवर्णस्य भेदभावोऽप्रयोजनात् / अकाराद्या उकारान्ताः पंचाप्यनुत्तरालयाः // 14 // अन्वह-ऋ वर्णाद् ल. वर्णस्य भेदभावः न अप्रयोजनात् अकाराद्या उकारान्ताः पंचापि अनुत्तरालयाः // 14 / / अर्थ-ऋ वर्ण से लू वर्ण के भेदभाव का कोई प्रयोजन नहीं है* अर्थात् दोनो में कीई भेद नहीं है। इसलीए इन् दोनों पर विचार करने का प्रयोजन नहीं है। अब अ आ इ ई उ पर्यन्त ये पांच वर्ण पांच अनुत्तर विमानवासी देवों के वाचक हैं। सर्वार्थसिद्धिः प्रथमो-ऽपरोऽपराजितस्ततः / इस्वरे पि जयो दीर्घ विजयान्तोज्जयन्तके // 15 // अन्वय-प्रथमः सर्वार्थसिद्धिः अपरः अपराजितः ततः इ स्वरेऽपि जय दीर्धे विजयान्त उत् जयन्तके / / 15 // अर्थ-प्रथम स्वर असे सर्वार्थसिद्धि दूसरे आ से अपराजित इ स्वर से विजय दीर्घ ई से विजयन्त एवं उ से जयन्त नाम के लोक (विमान) सिद्ध हुए। ॐकारकेवलज्ञानं सिद्धः प्रागेव दर्शितः / अस्त्यागसिद्धश्चारित्रात् अं सिद्धो भक्तिशीलनात् // 16 // * 'रलयोरभेदः' र एवं ल में भेद नहीं है यह पहले ही कहा जा चुका है। अहंद्गीता 320 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org