________________ पंचत्रिंशत्तमोऽध्यायः श्री गौतमउवाच ऐश्वर्यमुपलब्धीनां देव त्वय्येव निस्तुलम् / तन्मातृकोपदेशेन लोकरूपं निरूपय // 1 // अन्वय-श्री गौतम उवाच देव त्वयि एव निस्तुलं उपलब्धीनां ऐश्वर्य / तत् लोकरूपं मातृको पदेशेन निरूपय // 1 // अर्थ-श्री गौतम स्वामी ने पूछा हे भगवान् आप में तो उपलब्धियों का अनुपम ऐश्वर्य समाया हुआ है अत: मुझे वर्णमातृका के उपदेश से लोकरूप को समझाइए। श्री भगवानुवाच क्षः क्षेत्रं तदिहालोकः ऊर्ध्वाधः पार्श्वयोर्द्वयोः / पूर्णबिन्दुद्वयाकारात् ज्ञेयोऽन्तः शुषिरः स्वतः // 2 // अन्वय-श्री भगवानुवाच क्षः क्षेत्रं तत् इह अलोकः ऊर्ध्व अधः पार्श्वयोः द्वयोः पूर्णबिन्दु द्वयाकारात् स्वतः अन्त शुषिरः ज्ञेयः // 2 // अर्थ-वर्णमाला का क्ष अक्षर अलोक क्षेत्र का वाचक है। इसके उपर नीचे तथा दोनों और यह अलोक व्याप्त है। दो पूर्ण बिन्दुओ के आकार का होने के कारण अन्दर से इसे शून्य ही समझना चाहिए। ऊर्ध्वाधोभूद् द्वयात्मत्वाल्लस्तु लोको महाप्रभुः / वहन् मूर्धन्यनुस्वारं सिद्धरूपोपदेशकम् // 3 // अन्अय-उर्धायः द्वयात्मत्वात् लस्तु लोको महाप्रभुः। मूर्धनि अनुस्वारं वहन् सिद्धरूपोपदेशकम् // 3 // अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org