________________ पञ्चत्रिंशत्तमोऽध्यायः वर्णमातृका में लोक स्वरूप [ इस अध्याय में गौतम स्वामी ने वीर प्रभु से वर्णमातका के उपदेश से लोकरूप का विवेचन पूछा है। श्री भगवान् ने उत्तर दिया कि वर्णमाला का अक्षर अलोकवाची है ल उप्रलोक तथा अधोलोक रूपात्मक लोक स्वरूप है ल भूमि का बीज है अतः यह अक्षर राक्षस वाची है। प से लेकर व पर्यन्त आठ वर्ण व्यन्तरों के आठ समूह के वाचक हैं। प फ ब भ में मनुष्यों के __चारों वर्ण समाये हुए हैं वैसे ही त थ द ध में तारे नक्षत्र सूर्यं चन्द्रादि चार प्रकाशक स्थित हैं। प्रत्येक वर्ग के पाँच अन्तिम सानुस्वार वर्ण अर्हत् परमेष्ठियों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। क से ढ पर्यन्त 12 वर्ण 12 स्वर्गों के वाचक हैं। इसी प्रकार स्वरों में भी नौ ग्रैवेयक आदि स्वरूप समाए हुए हैं। त्याग विसर्ग रूप है तथा रेफ अग्निरूप है। अंत में नमः शब्द में रेखाओं के अंकन द्वारा 25 तीर्थंकरों का आभास भी इसी अध्याय में दिया गया है। / इसी अध्याय में नमः शब्द की विशिष्ट व्याख्या की गई है विनय (विशिष्ट नय = सम्यक ज्ञान) विनय भक्ति (सम्यग् दर्शन) तथा विनयव्रत (सम्यग् चारित्र)। इस अध्याय में मातृका में लोकालोक का निदर्शन कर लोक अर्हद् व्यापी तथा अर्हत् को लोकव्यापी बताया गया है। पञ्चत्रिंशत्तमोऽध्यायः 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org