________________ अन्वय-एवं प्रकृत्याश्रयात् मातृकया इदं जगत् त्रयं व्याप्तं। एषाऽपि स्वरसंगता स्थितिवशात् सर्वेऽपि स्वराः अकारे (स्थिताः) सो (अकारः)ऽपि अर्हत्प्रतिपादकः समहिताः सिद्धाः सवुद्धाः शिवः / ताद्र्याय एव भव्यैः अनन्तश्रिया भगवान् निसेव्यः / / 21 // / 5 अकार के लघु गुरु रूप छन्द शास्त्र में भी कहे गये हैं। अर्थ-इस प्रकार यह त्रिलोक प्रवृति से मातृका में व्याप्त है। यह मातृका भी स्वरमय है। सभी स्वरों में मुख्यता के कारण सभी स्वर अकार में स्थित हैं। यह अकार भी अर्हतों का प्रतिपादक है। अर्हतों में सिद्ध केवलज्ञानी एवं मोक्षरूप समाया हुआ है। इसलिए भव्य जीवों को शिवस्वरूपता के लिए अनन्त शोभा सम्पन्न भगवान का निसेवन करना चाहिए। // इति श्रीअर्हद्गीतायां कर्मकाण्डे चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org