________________ अन्वय-यात् पशु सहि रे कामे लात् इह खण्डनं अश्नुते वात् संयमात् शिवः स्यात् षे स्वर्ग स हरितस्तु हात् // 18 // अर्थ-यह अकार आत्मा य से पशु तुल्य, र से कामलीन, ल से वह खण्डित होता है व से संयमशील श ष से मोक्षरूप स से स्वर्गोन्मुख एव ह से प्रसन्न होता है। लं परब्रह्मलब्धोक्षः क्षेमवानक्षरः परः / एष्वात्मवाचकोऽकारो बिन्दुस्तु शिवरूपवान् // 19 // अन्वय-लं पर ब्रह्मलब्धो, क्षः क्षेमवान् अक्षरः परः एषु आत्मवाचकोऽकारः बिन्दुः तु शिवरूपवान् // 19 // अर्थ-ल्लं पर ब्रह्मलीनता का अक्षर है एवं उसके आगे का अक्षर क्ष मंगलकारी है। इन क से लेकर क्ष पर्यन्त अक्षरों में आत्मवाचक अकार निहित है इस अ पर लगा बिन्दु सिद्ध स्वरूपमय है। अर्थात् अं सिद्ध स्वरूप है। वक्राकाराद्भवेदात्माऽकारेण ऋजुलेखया। अर्हन् अकारस्तवेधा परमात्मात्मभेदतः // 20 // अन्वय-वक्राकारात् आत्माभवेत् अकारेण ऋजुलेखया अकारः अर्हन् तत् परमात्मात्मभेदतः द्वेधा // 20 // अर्थ-(s) वक्राकार रूप लिखने से अकार आत्मवाची एवं सीधी (1) रेखा रूप लिखने से अकार अर्हत्वाची होता है। इस प्रकार यह (5) वक्राकार तथा सरलाकार (1) अकार आत्मा तथा परमात्मा के भेद से दो प्रकार का हुआ। एवं मातृकया जयत्त्रयमिदं व्याप्तं प्रकृत्याश्रयात् / एषाऽपि स्वरसंगता स्थितिवशात् सर्वेऽप्यकारे स्वराः // सोऽप्यर्हत्पतिपादकः समहिताः सिद्धाः सबुद्धाः शिव / स्ताद्रप्याय निसेव्य एव भगवान् भव्यैरनन्तश्रिया // 21 // चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः 313 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org