________________ आदग्निद्वेषवशतष्टात्धूम्रमनसाकुलः / ठो बहुध्वान्तवान् शून्यो भ्रमेन्डैमूढधीढवत् // 15 // अन्वय-आत् अग्निद्वेषवशतः टात् धूम्रमनसाकुलः ठोः बहुध्वान्तवान् डैः शून्यो भ्रमेत् ढवत् मूढधीः / / 15 // / अर्थ-ञ् से यह अकार रूप आत्मा अग्निद्वेष वश होती है। ट से यह धूमायित तथा कामना से आकुल होती है। ठ से कालमामय, ड से शून्य में भटकती है एवं ढ से मूढमति होती है। णान्मोक्षात्तस्करस्तात् स थाभीत्राणेन दादयं / दाताधाद्धर्मधनवान् नात्बुद्धः पात् स चाधिपः // 16 // अन्वय-णात् मोक्षात् स तात् तस्करः भीत्राणेन थात् दात् अयं दाता धात् धर्म धनवान् नात् बुद्धः पात् च स अधिपः / / 16 // अर्थ-यह अकार रूप आत्मा ण से मोक्ष, तसे तस्कररूप, थ से यह भय से त्राण पाती है। द से यह दाता, ध से धर्मधनवान् न से बुद्ध, प से यह राजा बनाती है। यहाँ वर्णमातृका का मनोवैज्ञानिक स्वरूप बताया गया है। फाद्रणे निष्ठुरोक्तौ बात्कलिर्बाहुबलेरिव / / मे शंभौ भगवत्युच्चैं-भक्तो मः शिवरूपभाक् // 17 // अन्वय-फात् रणे निष्ठुरः उक्तः, बात् कलिः बाहुवलेरिव। मे शभौ भगवति उच्चैः भक्तः म शिवरूपभाक् // 17 // अर्थ-फ से यह अकार आत्मा रण सुभट कहा गया है। ब से यह बाहुबलि के समान बलशाली, भ से तीर्थंकर भगवान का भक्त एवं म से शिवस्वरूप बन जाता है। यात्पशुः सहिरेकामे लात्खण्डनमिहाश्नुते / वात्संयमात् शिवस्यात्षे स्वर्गे सहरितस्तु हात् // 18 // 312 अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org