________________ ककारात्कर्मणाविष्टो-कारः खात् खादनेन्द्रियैः / गाद्गात्रं कुरुते घोषं घात्प्राणं पंचमादिह // 13 // अन्वय-अकारः ककारात् कर्मणाविष्टः, खात् (अकारः) खादनेन्द्रियैः ( युक्तः), गात् (अकारः) गात्रं कुरुते, घात (अकारः) घोषं, इह (अकारः) पञ्चमात् ( ङात्) प्राणं कुरुते / / 13 // अर्थ-क का तात्पर्य है कर्म से आविष्ट अकार अथवा आत्मा। ख से भोजन और इन्द्रिय अर्थात् आहार च इन्द्रिय पर्याप्ति से सहित आत्मा / ग से मात्र अर्थात् शरीर पर्याप्ति, घ से घोष अर्थात् भाषा पर्याप्ति, एवं ङ से प्राण पर्याप्ति अर्थात् श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति+, इन्हें अकाररूप आत्मा चनाती है ऐसा समझना चाहिए। एवं पर्याप्तयः पञ्चकालैक्याद् घोषचेतसोः। चाच्चित्ते छात्छलान्वेषी जाज्जातो झादतृप्तिमान् // 14 // अन्वय-एवं घोषचेतसः कालैक्यात् पंचपर्याप्तियः चात् चित्ते छात् छलान्वेषी जात् जातः झात् अतृप्तिमान् // 14 // ____ अर्थ-इस प्रकार वचन एवं मन पर्याप्ति की काल की एकता के कारण पर्याप्तियाँ पांच ही कही गयी हैं। च से आत्मा चित्त में रमता है। छ से छल कपट का अन्वेषण करता है ज से उत्पन्न हुआ है एवं झ से वह जीव अतृप्त रहता है। भाषा पर्याप्ति एवं मन पर्याप्ति के काल की ऐक्यता होने से इस प्रकार पांच पर्याप्तियां ही होती हैं यद्यपि पंचेन्द्रिय जीव को सिद्धान्तानुसार छः पर्याप्तियों वाला कहा गया है किन्तु देवों की भाषा पर्याप्ति एवं मन पर्याप्ति एक ही साथ पूर्ण होती है अतः पांच पर्याप्तियां ही बताई गई हैं। ___+ जैन दर्शन में पर्याप्तियों का उल्लेख है। 1 आहार पर्याप्ति, 2 शरीरपर्याप्ति, 3 इन्द्रियपर्याप्ति, 4 श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, 5 भाषापर्याप्ति 6 मनपर्याप्ति. चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः 311 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org