________________ अन्वय-अल्पान्तराद् वा बहुलान्तराद् वा वर्णाश्रयतः यकार: क्वचित् स्वरवत् उक्तः। नवमार्हतः अल्पान्तराद् वा बहुलान्तराद् वा तीर्थस्य लोपात् अहंदुक्तिः विवेच्य // 5 // . अर्थ-य का स्वर से अल्प अन्तर होने से अथवा अन्तस्थ होने के कारण बहुत दूरी होने पर भी स्वर का आश्रित होने के कारण य को स्वरवत् ही कहा गया है। नवम तीर्थङ्कर सुविधिनाथ के बाद कभी कभी बहुत लम्बे समय तक तीर्थ का लोप हो गया तथा कभी थोडे समय तीर्थ का लोप हो गया पर तीर्थङ्करत्व अक्षुण्ण रहा। इसी तरह य कार का भी स्वरत्व अक्षुण्ण रहा। इस प्रकार प्रत्येक वर्ण का आश्रय लेकर अर्हद् वाणी का विवेचन करना चाहिए। यद्वा द्वात्रिंशताऽकारै-य॑ञ्जनस्थैः सह स्वराः / यदा षोडश मील्यंता-ऽष्टवेदास्यु(४८)स्तदा स्वराः // 6 // अन्वय-यद्वा व्यञ्जनस्थैः द्वात्रिंशताकारैः सह यदा षोडश स्वरा, अमील्यन्त तदा स्वराः अष्टवेदाः स्युः। (8+4 = 48 अंकानां वामतो गतिः ) // 6 // __ अर्थ-अथवा व्यञ्जनों के 32 अकारों के साथ जब 16 स्वर मिलते हैं तब स्वर 48 हो जाते हैं। चतुर्विंशतिकायुग्ममेवंस्थात् स्मृतमहताम् / उत्सपिण्यवसर्पिण्योरतीतवर्तमानयोः // 7 // अन्वय-उत्सर्पिणी अवसर्पिण्योः अतीतवर्तमानयोः एवं अर्हताम् चतुर्विंशतिकायुग्मं स्मृतं स्यात् / / 7 / / अर्थ-भूतकालीन एवं वर्तमानकालीन उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी कालों में इस प्रकार अर्हत्देवों की 24 चौवीसी का जोड़ा कहा गया है। 308 अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org