________________ अन्वय-श्री भगवानुवाच पोडशैव हि सुवर्णभास्वराः तीर्थपाः सन्ति इह सुवर्णभाः स्वराः 1 षोडशाः ) सन्ति / वः हिताय व्यञ्जनैः विरहिताः ते समहोदयं जयं दिशन्ति / / 3 // अर्थ-श्री भगवान् ने कहा-स्वर्ण के समान भास्वर स्वर सोलह हैं राचं सुवर्ण भास्वर तीर्थपति भी 16 ही हैं। तुम्हारे हित के लिए (निरुपाधि) व्यञ्जनों से रहित वे महान् उत्कर्षमय बिजय को प्रदान करते हैं। व्यंजनप्रकृतिवर्णभेदतो ऽटौ परेपि महसाऽष्टसिद्धिदाः / पंचमाः सयवलाः स्वराश्रय प्रस्तुता दधति रूपमक्षरम् // 4 // अन्वय-परेऽपि अष्टौ. व्यञ्जनप्रकृतिवर्णभेदतः महसा अष्टसिद्धिदाः सयवलाः पञ्चमाः स्वराश्रयप्रस्तुता अक्षरं रूपं दधति // 4 // - अर्थ-सभी वर्गों के पंचम रूप ङ् ञ् ण् न म्, एवं य व ल स्वर के आश्रय से प्रस्तुत हैं अतः अक्षर रूप को धारण करते हैं। अर्थात् य व ल (इ+ अ उ + अ ल + अ) स्वर योग से बनते हैं ये आठों व्यञ्जनों की प्रकृति से अलग होने के कारण ध्यान करने पर अष्ट सिद्धि को प्रदान करने वाले होते हैं। इस प्रकार 16 स्वर + 5 अनुनासिक+३ (यवल) मिलकर कुल 24 तीर्थकरों के वाचक हैं। रलयोरभेदः (पाणिनि) सूत्र से र एवं ल में भेद नहीं माना जाता है अतः यहाँ केवल ल का ही उल्लेख हुआ है र का नहीं। अल्पांतरत्वादहुलान्तराद्वा तीर्थस्य लोपानवमाहतो वा विवेच्य वर्णाश्रयतोऽर्हदुक्तिः कचित्तदुक्तः स्वरवद्यकारः // 5 // चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org