________________ चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः श्री गौतम उवाच एन्द्राधिदेवदेवत्वं स्वरेष्वेवं विनिश्वितम् / एषः सकारकैवल्या-त्सर्वाक्षरमयः परः / / 1 / / अन्वय-श्री गौतम उवाच / एवं स्वरेषु ऐन्द्राधिदेवदेवत्वं विनिश्चितं। एषः सकार कैवल्यात् सर्वाक्षरमयः परः // 1 // अर्थ-श्री गौतम स्वामीने कहा- इस प्रकार स्वरों में परमात्मा का स्वरूप सुनिश्चित है। इन स्वर समूहों में परमात्मपद ( सकार कैवल्य ) निहित होने से ये अक्षय एवं परम हैं। त्यष्टसु व्यंजनेष्वेतदाहन्त्यं चिन्त्यते कथम् / प्रकृतेर्वर्धनान्नानारूपैराकारधारिषु // 2 // अन्वय-प्रकृतेः वर्धनात् नानारूपैः आकारधारिषु (एषु ) त्रयष्टसु व्यञ्जनेषु आर्हन्त्यं कथं चिन्त्यते / / 2 / / अर्थ-प्रकृति (स्वर) से वर्धनशील होने के कारण नानारूपों के द्वारा आकार धारण करने वाले इन 38 व्यञ्जनों में आर्हन्त्य का चिन्तन कैसे किया जा सकता है ? श्री भगवानुवाच पोडशैव हि सुवर्णभास्वरा स्तीर्थपा इह सुवर्णभाः स्वराः / व्यञ्जनैर्विरहिता हिताय व स्ते दिशन्ति समहोदयं जयम् // 3 // ऐन्द्र - आत्मा। आत्मा के अभिदेव - परमात्मा। 306 अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org