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________________ चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः व्यञ्जन भी अहवाची हैं [ श्री गौतम स्वामी ने पूछा कि स्वरों में तो इन्द्रादि देवताओं का वास निश्चित हो गया पर 38 व्यञ्जनों में अर्हत भगवान का चिन्तन कैसे किया जा सकता है ? श्री भगवान् ने उत्तर दिया सभी वर्गो के पंचम रूप ङ् ण न म् एवम् य ल व स्वर के आश्रित है अतः ये आठों अष्ट सिद्धियों के दाता हैं। प्रभु के वचन श्रुतशास्त्र है एवम् श्रुतशास्त्र में इन स्वर व्यञ्जनों की आश्रय-धारिता है इसलिए ये अहंद्वाची हैं। इस मातृका में प्रकृति व्याप्त है एवम् यह त्रिलोक भी इसीमें व्याप्त है। इसमें सभी वर व्यञ्जनों में अ की प्रमुखता है जो अहंतों का प्रतिपादक है। अहंतों में मोक्ष रूप समाया हुआ है अतः इस अ की समग्र व्याप्ति से ये व्यञ्जन भी अर्हद् वाचक हैं। चित्त का सूक्ष्म कंपन स्थूल रूप में वर्ष मातृका के द्वारा प्रकट होता है। चित्त में जैसा भाव उत्पन्न होता है वैसी ही वर्णमातृका का उद्भव होता है। वर्णमातृका के समस्त स्वर व्यञ्जन भावमन से जुड़े हुए हैं।] 305 चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः अ. गी.-२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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