________________ पंच हृस्वाक्षर उच्चार प्रमाण काल में ही मुक्ति प्राप्त होती है यह बात शास्त्र सम्मत है। गुणे वृद्धौ यथायोग स्वराणां रूपमुद्भवेत् / येषां गुरुत्वं सर्वत्र तेषु युक्तो महोदयः // 15 // अन्वय-स्वराणां गुणे वृद्धौ यथायोगं रूपं उद्भवेत् येषां सर्वत्र गुरुत्वं तेषु महोदयः युक्तः // 15 / / अर्थ-ये स्वर स्वयं सिद्ध होने के कारण इनके गुण एवं वृद्धि में जो रूप उत्पन्न होते हैं वे सर्वत्र गुरु रूप होते हैं, इसी प्रकार आत्माएँ भी सदा गुण गरिमा एवं समुन्नति में महोदय वाली होती है अर्थात् उनका रूप सदा बड़प्पन से युक्त होता है / संध्यक्षरत्वं तेनैषां लोकालोकान्तरस्थितेः।। शिवरूपमनाकारा-द्विन्दोराद्यस्वराश्रयात / / 16 / / अन्वय-संध्यक्षरत्वं शिवरूपं भवति तेन एषां लोकालोकान्तरस्थितेः। आद्यस्वराश्रयात् अनाकारात् बिन्दोः शिवरूपं भवति // 16 // अर्थ-इसलिए उनका सन्ध्यक्षरत्व ऐ औ सिद्ध परमात्मा का वाचक है जो लोक और अलोक के बीच में रहे हुए हैं, इस प्रकार ए ऐ ओ औ सिद्धशीला वाची हो गए। बिन्दु तो अनाकार है। आद्य स्वर अ का आश्रयी होने के कारण यह सिद्ध स्वरूप ही है। रेफोग्निवीजं प्रकृति-विसर्गस्य निसर्गतिः / जहाति न स्वराभ्यर्ण स्वरसर्गोऽपि तत्स्मृतः / / 17 // अन्वय-रेफः अग्निबीजं विसर्गस्थ प्रकतिः निसर्गतिः (रेफः) स्वराभ्यण न जहाति स्वरसोऽपि तत्स्मृतः / / 17 // अर्थ-रेफ अग्नि बीज है एवं विसर्ग की स्वाभाविक प्रकृति विसर्जन है। रेफ स्वर की समीपता नहीं छोडता है अत: इसे स्वर की सृष्टि भी कहते हैं। 302 अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org