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________________ स्वरात्मकता को विनष्ट करती है अर्थात् स्वर अविकारी सिद्ध स्वरूप हैं पर व्यञ्जन विकारी हैं एवं सोपाधि हैं। ऋकारं ऋषभं प्राहुर्मूर्धन्यं शाब्दिका अपि / ./ तदंशाश्रयणाद्रेफो- प्यूज़ स्याद्व्यञ्जनेऽग्रगे // 12 // अन्वय-ऋकारं ऋषभं मूर्धन्यं शाब्दिकाः अपिप्राहुः। तत् अंशा" श्रयणात् रेफः अपि ऊर्च स्यात् व्यञ्जने अग्रगे // 12 // अर्थ-ऋषभ रूप ऋकार को व्याकरण शास्त्री मूर्द्धन्य कहते हैं उस ऋकार के अंश के आश्रय से रेफ सभी व्यञ्जनों के ऊपर विराजमान है। सिद्ध भगवान मी मूर्धन्य हैं एवं सर्वोपरि सिद्ध शिला पर विराजमान हैं। ऋस्वरे वीतरागत्वं दीर्घोऽयं च महात्मनि / एषां समानता तस्माच्छब्दार्थयोरभेदतः // 13 // अन्वय-ऋ स्वरे वीतरागत्वं / दीर्घः अयं च महात्मनि तस्मात् शब्दार्थयोः अभेदतः एषां समानता // 13 // अर्थ-ऋ स्वर ऋषभवाची होने से वीतरागत्व का द्योतक है। दीर्घ ऋ ऋषिवाचक है। दोनों की समानता है। इसलिए शब्द और अर्थ के अमेद के कारण इन ऋषभ वाची ऋ ऋ स्वरों में समानता रहती है। अ इ उ ऋ ल. इत्यस्य सूत्रस्योच्चारमानतः / निर्व्यञ्जनत्वे सिद्धिःस्या-न्नृणां सिद्धान्तसमता // 14 // अन्वय-अ इ उ ऋ ल इति अस्य सूत्रस्य उच्चार मानतः नियंअनत्वे नृणां सिद्धान्तसम्मता सिद्धिः स्यात् / / 14 // अर्थ-अ इ उ ऋ ल इस सूत्र के उच्चार मान से इनके स्वर रूप होने से नियंञ्जन सिद्धि होती है यह बात आगम में भी कही गई है। ऋटुरषाणांमूर्द्धा - पाणिनी त्रयस्तिशत्तमोऽध्यायः 301 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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