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________________ . . अर्थ-यहाँ अर्थ से ॐ का महत्त्व समझाते हैं। नमस्कार विनय मूलक है। क्रिया ज्ञान मूलक है। इन ज्ञान तथा क्रिया से जो सिद्ध बनते हैं उनकी संज्ञा ॐ है। अवर्णेऽहंस्तथाचार्यः साधुश्वव्यंजन का / ई: सिद्ध उ रुपाध्याय अ इ उ भ्यः शिवात्मता // 10 // अन्वय-अवर्णे अर्हन् तथा आचार्याः व्यंजनैः लुका साधुः च ई सिद्ध उ उपाध्याय अ इ उभ्यः शिवात्मता // 10 // ___अर्थ-अ इ उ संज्ञक प्रथम सूत्र में पंचपरमेष्ठि बता रहे हैं। अ वर्ण में अरिहंत भगवान व आचार्य भगवान है। यदि साधु शब्द के सा में से स् व्यञ्जन का लोप कर दें तो आकार शेष रहता है वह भी साधु वाचक है। उसका भी समावेश अ वर्ण में होता है अतः अ वर्ण में अरिहंत आचार्य व साधु भगवान समाविष्ट हैं। ई सिद्धवाचक है, उ उपाध्याय वाचक है इस प्रकार अ इ उ स्वरों में सिद्धता समाविष्ट है। इन स्वरों में इस प्रकार पंचपरमेष्ठि समाये हुए हैं। एषां मात्राबलादेोप्यस्वरत्वं न मन्यते / यावव्यञ्जनयुक्तिनों हन्यात्सैव स्वरात्मताम् // 11 // अन्वय-एषां मात्राबलात् देय अस्वरत्वं न मन्यते / यावत् व्यञ्जनयुक्तिः नो सा एव स्वरात्मतां हन्यात् // 11 // अर्थ-आचार्य शब्द में आ सिद्धवाचक ई अतः इसका समाधान करते हैं। इन स्वरों का मात्राओं के बल से दीर्घत्व होनेपर भी इनका अ स्वरत्व नहीं माना जाता अर्थात् असे आ उसे ऊ इसे ई होने पर भी इनका स्वरत्व तथावत् ही रहता है। वे स्वर तभी तक हैं कि जब तक व्यंजन से इन स्वरों की युति नहीं होती। यह व्यञ्जनों की युति ही इनकी 300 अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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