________________ त्रयस्तिंशत्तमोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐन्द्रप्रभृतिशब्दानु-शासनैर्या पुरस्कृता / सा मातृकेव सर्वेषां ध्येया मान्या च मातृका // 1 // तदुक्त्यैव परीक्ष्येयं कथं धर्मसभासदाम् / न तत्त्वधीविना शास्त्रं न शास्त्रं मातृकां विना // 2 / / अन्वय-श्री गोतम उवाच या मातृका ऐन्द्रप्रभृति शब्दानुशासनैः पुरस्कृता सा मातृका इव सर्वेषां ध्येया मान्या च तदुन्या एव धर्मसभासदां इयं कथं परीक्ष्या न तत्त्वधीविनाशास्त्रं न शास्त्रं मातृकां विना // 1,2 // अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने पूछा हे भगवन् ! आपने फरमाया है कि जो मातृका ऐन्द्रप्रभृति शब्दानुशासनों के द्वारा सर्वप्रथम बताई गई है उसी मातृका का माता की तरह सभी को ध्यान करना चाहिए तथा मान करना चाहिए। उसी उक्ति से धर्म सभा के सदस्य इस कथन की कैसे परीक्षा करें कि शास्त्र के बिना ज्ञानी नहीं होते है एवं बिना मातृका के शास्त्र नहीं। श्री भगवानुवाच प्रथमेनार्हता ब्राम्हया स्वपुत्र्याप्रथमं यतः। पाठिताक्षरराजीयं ब्राह्मीति हितकृन्नृणाम् // 3 // अन्वय-श्री भगवानुवाच-- यतः प्रथमेन अर्हता स्वपुत्र्या प्रथम इयं अक्षरराजि पाठिता ब्राह्मीति हितकृन्नृणाम् // 3 // त्रयस्तिशत्तमोऽध्यायः 297 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .