________________ त्रयस्तिशत्तमोऽध्यायः / वर्णमातृका से परामातृका [श्री गौतम स्वामी ने पूछा कि धर्म सभा के सदस्य यह कैसे निर्णय करें कि मातृका के बिना शास्त्र नहीं एवम् शास्त्र के बिना ज्ञानी नहीं। श्री भगवान् ने उत्तर दिया-मातृका में ऊँ प्रथम है जिसका अ आत्मा उ रक्षाकारी तथा म मोक्षदाता है। मातृका के अ इ उ संज्ञक प्रथम सूत्र में अ अरिहंत, आचार्य साधु वाचक हैं सिद्धवाचक एवम् उ उपाध्याय वाचक है। इस प्रकार मातृका के प्रथम सूत्र में पंच परमेष्ठि समाये हुए हैं। ऋषभरूप ऋ को मूर्हन्य कहते हैं इस ऋकार के अंश के आश्रय से रेफ रूप सिद्ध भगवान् सर्वोपरि सिद्धशिला पर विराजमान हैं। अ इ उ ऋ ल इस सूत्र के उच्चार मात्र से अथवा इन पंच ह्रस्वाक्षर उच्चार प्रमाणमात्र में ही सिद्ध स्थिति प्राप्त होती है ऐसा आगम कहते हैं। इन स्वरों में इन्द्रादि देवताओं का वास निश्चित किया गया है इस वर्ण मातृका (व्यक्तावस्था) से परामातृका (अव्यक्तावस्था) को प्राप्त किया जा सकता है। इस अध्याय में जैनागमों में प्रचलित अर्ह, अरिहा, अरहा, अरुहा आदि शब्दों में मातृका के पुंज रूप संकेत शब्दों का निर्धारण कर शब्द ब्रह्म से परब्रह्म का ध्यान बताया गया है] ON - H अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org