________________ द्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐक्यादतः कथं सर्वेऽहन्तस्तत्र निवेदिताः। सर्वस्वरेषु चैकोऽर्हन कैर्गुणैः प्रतिपाद्यते // 1 // अन्वय-अतः ऐक्यात् सर्वे अर्हन्तः तत्र कथं निवेदिताः / सर्व स्वरेषु च एक अर्हन् कैः गुणैः प्रतिपाद्यते // 1 // अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने पूछा हे भगवान अ में एक रूप से सभी ऋषभादि अरिहन्तों को किस प्रकार वर्णित किया गया है। सभी स्वरों में एक अर्हन् किन गुणों द्वारा प्रतिपादित किए जा सकते हैं ? श्री भगवानुवाच अर्हन्नाद्योऽवनीशो वा-ऽनगारोऽष्टापदेऽचले / निवृत्तोऽभिजिति प्रोक्तो-ऽवतारोप्यष्टमः परः // 2 // अन्धय-श्री भगवानुवाच अर्हन् आद्यः अवनीशो अनगारो वा अष्टापदे अचले अमिजिति नक्षत्रे निवृत्तः परैः अष्टमः अवतारः अपि प्रोक्तः / / 2 // ___अर्थ-अब अ में ऋषभादि सभी तीर्थङ्करों का कथन करते हैं। ऋषभदेव आदि अर्हत् हैं आदि अवनीपति हैं, आदि अनगार (साधु) हैं। इन्हें अष्टापद पर्वत पर अभिजित्* नक्षत्र में कैवल्य की प्राप्ति हुई है / अन्य धर्मावलम्बी इन्हें अष्टम अवतार मानते हैं। ho ho ho * नक्षत्र 27 ही होते हैं पर अभिजित् नामका नक्षत्र 28 वा नक्षत्र माना जाता है। अन्य नक्षत्रों की कांति इस नक्षत्र में 13 अंश 20 कला नहीं होती अपितु उत्तराषाढा नक्षत्र की 15 घटी तथा श्रवण नक्षत्र की प्रारंभिक 4 घटी मिलाकर इसमें मुल 19 घटी होती हैं। अभिजित् नक्षत्र को प्रत्येक कार्य में शुभ माना जाता है। द्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः 287 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org