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________________ अर्थ-अव प्रश्न है कौन केवलज्ञान को धारण करते है ? उत्तर हैअरिहन्तों के ध्यान से सब देवों और खेचरों से वन्दनीय अकार रूप जो निराकार हो गए हैं वे विवेकदृष्टि अनाहारी मोक्ष से सुख प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों को जीतकर ज्ञान के उदित होने पर अपना ज्ञान भोजन करते है। वणेषु सर्वेषु यदस्त्यकारः श्रीमातृकायां सकलार्थयोगात् / तज्ज्ञानतोऽर्हन्नपि तद्वदेव देवप्रभावात् परिभावनीयः // 20 // अन्वय-सकलार्थयोगात् श्रीमातृकायां सर्वेषु वर्णेषु यत् अकार अस्ति तद्ज्ञानतः देवप्रभावात् तद्वत् अर्हत् अपि परिभावनीयः॥२०॥ अर्थ-अब अर्हत् भगवान् का सर्व विश्वव्यापी रूप सिद्ध करते हैं। अ में सकल अर्थों की स्थिति हैं एवं श्री मातृका में सभी वर्गों में जो अकार समाया हुआ है अर्थात् अ समस्त मातृका का मूल है एवं मातृका में सकल संसार समाया हुआ है उसी अकार की तरह अर्हत् भगवान् भी अपने प्रभाव से सर्वव्यापी हैं। ऐसी परिभावना करनी चाहिए / ज्ञेयादनन्ताद्भगवाननन्तो ___ऽर्हस्तद्विबोधी स च वीतरागः / तत्पूजनात्तत् प्रणतेस्तदीय ध्यानाद्भवेत्तन्मय एव सर्वः // 21 // अन्वय-ज्ञेयात् अनन्तात् तद्विबोधो अर्हन् भगवान् अनन्तः स च वीतरागः। तत् पूजनात् तत् प्रणतेः तदीय ध्यानात् सर्व एव तन्मय भवेत् // 21 // अर्थ-संसार में ज्ञेय अनन्त हैं तो उनको जानने वाले अर्हत् भगवान भी अनन्त हैं। वे वीतराग हैं। उनके पूजन से, उनको नमस्कार करने से तथा उन्हीं के ध्यान से यह समग्र विश्व तन्मय हो जाता है। // इति श्री अर्हद्गीतायां कर्मकाण्डे एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः // . एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः 285 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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