________________ रही निवार्य ध्येयं तत् अ इत्यर्थोऽथवा पदे / रहोरुभयतः स्थित्या-हन् वा सिद्धमकारतः // 17 // अन्वय-अथवा रहौ निवार्य पदे तत् अ ध्येयं वा रहोः उभयतः स्थित्या अकारतः अर्हन् सिद्धम् // 17 // अर्थ-अब अरहा शब्द में अ का स्वरूप समझाते हैं। अथवा र एवं ह को छोड़कर पद में उस अ का ध्यान करना चाहिए। र एवं ह दोनों में अ की स्थिति होने के कारण अकार से अर्हन् पद की सिद्धि होती है। अरहा शब्द में आदि में अ व अन्त में अ है। र अग्नि स्वरूप तथा ह आकाश स्वरूप है। आकाश एवं अग्नि दोनों से अर्हत् स्वरूप की प्रतिष्ठा है। रहाम्यां यत्परे द्वित्वं तदपि स्वरयोगजम् / व्योमाग्नितत्त्वयोः सिद्धिरित्याहुः स्वरवेदिनः // 18 // अन्वय-रहाम्यां परे यत् द्वित्वं तदपि स्वरयोगजम्। व्योमाग्नितत्त्वयोः सिद्धिः इति स्वरवेदिनः आहुः // 18 // अर्थ-र एवं ह के परे जो द्वित्व होता है वह भी स्वर के योग से होता है। इनसे (र एवं ह से ) आकाश एवं अग्नि तत्त्व से सिद्धि होती है ऐसा स्वरशास्त्री कहते हैं। के केवलं दधति ये स्युरकारभाजो हध्यानतः सकलखेचरवन्दनीयाः खे भुञ्जते ख विजयादुदिते स्वरवाद्यम् प्राप्तुं विवेकसुदृशः खऽमखाधमोक्षात् // 19 // अन्वय-के केवलं दधति? ये सकलखेचरवन्दनीया अहंध्यानतः अकारभाजः स्युः। विवेकसुदृशः अखाद्यमोक्षात् खं प्राप्तुं खविजयात् ख उदिते स्वरवाद्यं भुञ्जते // 19 // ___* दिर्हस्वरस्याऽनुनवा - सिद्धहेम। ख = इन्द्रिय, ज्ञान / मोक्ष अहंद्गीता 284 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org