________________ भूमिर्यदीपत्प्रारभारा नाम्ना सीताज्जैनद्युतिः / तस्याः श्रीमान् पतिश्चार्हन् सीतापतिरुदीयत // 14 // अन्वय सीतार्जुनद्युतिः ईषत्प्राग्भारा नाम्ना भूमिः तस्याः श्रीमान् अर्हत् पतिः सीतापति उदीर्यत / / 14 // __ भगवान की सीतापति नाम की सार्वमतासिद्ध करते हैं। अर्थ-ईषत्प्राम्भारा नामकी जो भूमि है उसके स्वामी अर्हत् भगवान् होने के कारण इन अर्हत् भगवान् को सीतापति कहा जाता है। उसे सीतार्जुनधुति नाम कान्तिबाली सिद्ध शिला का एक नाम सीता भी है सिद्धशिला पर विराजमान् अर्हत् सीतापति है। रकारे चरणे लीने कंठजत्वादकारवत् / हकारात हर्पवान् अंगी ई ईषद्भवमाश्रितः / / 15 // अन्वय-रकारे चरणे लीने अकारवत् कंठजत्वात् हकारात् अंगी हर्षवान ई ईषद् भुवमाश्रितः / / 15 // . अर्थ-अब ही के स्वरूप का विवेचन करते हैं। ह अकार की तरह कंठज होने के कारण तथा उसके चरण में रकार होने से ह्र से हर्षवान् यह जीव ई से ईषद् प्राग्भारा पृथ्वी का आश्रित है। अर्थात् ही जीव की उर्ध्व गति का वाचक है। तत्र प्रणवमध्यस्थाकारस्यैवोपयोगतः / हकार सिद्धये योग्यः सर्वमन्त्रप्रतिष्ठितः / / 16 // अन्वय-तत्र प्रणवमध्यस्थ अकारस्य एव उपयोगतः सर्वमंत्रप्रतिष्ठितः हकारसिद्धये योग्यः // 16 // अर्थ-अब ॐ में ह का महत्त्व बताते हैं। प्रणव के मध्य में अकार जो हकार का वाचक है उसके उपयोग के कारण यह हकार सर्व मंत्रो में प्रतिष्ठित है। यह हकार सिद्धि के योग्य है / एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः 283 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org