________________ अस्याहतः श्रीऋषभात् ऋकारे __ योगाद्भवेदर्ननु हस्तहर्षी श्रीमान महावीरविभुर्वहस्तं शी शिवोहपदवाच्य एपः // 12 // अन्वय-श्री ऋषभात् ऋकारे अस्य अर्हतः योगात् ननु अर भवेत् / हस्तहर्षी श्रीमात् ( मे से) महावीर विभुः / तं (मकारं) शीर्षेवहन् एषः शिवः (ह) अहंपदवाच्यः // 12 // अब अर्ह पद की सिद्धि करते हैं। अर्थ-श्री ऋषभदेव भगवान् के ऋकार में अ का योग होने पर अर होता है। ह का अर्थ तो शिव ऋषि ही है। म से महावीर प्रभु होता है / उसी म को सिर पर धारण करता हुआ हं भी अहं पद से वाच्य हैं। ऋकारतः श्री ऋषभाख्ययाईन् ... आकारतस्त्वाद्य इतोः मकारः। श्रीमान्महावीर इति प्रसिद्धा रामे चतुर्विंशतिराहतीयम् // 13 // अन्वय-ऋकारतः श्री ऋषभाख्या अर्हन् आकारातः तु आद्य इतः मकारः श्रीमान् महावीर इति रामे इयं चतुर्विशति आर्हती प्रसिद्धा // 13 // अर्थ-अब रामशब्द में चौबीस तीर्थंकरों की सिद्धि करते हैं। ऋकार से श्रीऋभदेव भगवान् का ग्रहण करना चाहिए। आ से उन्हें आदि मानना चाहिए। इसके बाद म से श्रीमान् महावीर प्रभु का ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार राम शब्द में चौबीस तीर्थंकरों के समुदाय की सिद्धि होती है। ऋ एवं आ मिलने से रा बनता है। 282 अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org